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तृतीय खण्ड : गुरुदेव को साहित्य धारा
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अख्तर शीरानी की दृष्टि में दुनिया में न खुशी है न गम; यह तो एक ख्वाव है
दुनिया का तमाशा देख लिया, गमगीन सी है बेताबसी है।
दुनिया में खुशी को याद न कर, दुनिया में खुशी नायाबसी है। इन सब तथ्यों का समीकरण अध्यात्मयोगी श्री पुष्कर जी मुनि ने अपनी कथाओं में इस प्रकार किया है
"हाय, संसार की गति बड़ी विचित्र है । उसमें कुछ भी स्थायी नहीं है, सभी कुछ नाशवान है, अस्थिर है। मनुष्य का यह रूप, यह यौवन, यह वैभव-सभी कुछ नश्वर है, व्यर्थ है। सबेरे तक फला-फूला यह आम्रवृक्ष जिस प्रकार सांझ तक नोंच लिया गया, उसी प्रकार प्राणी के जीवन-वृक्ष को भी कराल काल एक दिन नोंच लेगा।
(साँझ-सबेरे, जैन कथाएँ भाग ८, पृष्ठ १२३) 'हे शुभ आत्माओं ! यह संसार एक कारागार के समान है । कारागार में कितने ही सुख हों, पर हर बंदी कारागार से मुक्त होना चाहता है, पर पहरेदारों के रहते जेलखाने से कैसे मुक्त हुआ जा सकता है। इस संसार रूपी कारागार के चार कषाय पहरेदार हैं-(१) क्रोध (२) मान (३) माया और लोभ ।..
(दया धर्म का मूल है, जैन कथाएँ भाग १२, पृष्ठ ११०) यह संसार बड़ा विचित्र है और मायामय है। यहाँ न कोई किसी का पिता है, न भ्राता, न कोई किसी की पत्नी है, न माता। सभी जीव अपने-अपने कर्मों का फल भोगने के लिए नाते-रिश्तों में बंधते हैं, मोह जाल में फँसते हैं। कभी कोई किसी की माता बनती है, और कभी वही उसकी पत्नी बनती है । यहाँ शत्रु भी पुत्र बन जाता है । प्रेम प्रीति, घृणा-द्वेष इस द्वन्द्वात्मक जगत की छलनाएँ हैं । इनसे ऊपर उठने वाला जीव ही आत्मा का कल्याण कर सकता है।
-(पुण्य की लीला, (४) जैन कथाएँ भाग १४, पृष्ठ ६३) संसार की रीति कैसी विचित्र है । यह दुनिया कैसी दुरंगी है। "स्त्री चंचला, लक्ष्मी, रोग-भोग तथा शरीर और घर से युक्त यह संसार सेंबल के फूल की तरह निस्सार और नीरस है। यहाँ रहकर पग-पग पर भय की आशंका है। यहाँ अखण्डित कुछ भी नहीं है-हर प्राप्य किसी न किसी आशंका वय से खंडित है, जैसे भोग में रोग का भय अथवा आशंका है, सुख में क्षय का भय है, धन संग्रह में चोरी, राजा तथा अग्नि का भय है, नौकरी में स्वामी का भय है। इसी तरह गुण में दुर्जन का, वंश में व्यभिचारिणी स्त्री का और सम्मान में दोष का भय है । इस सबके बावजूद एक वैराग्य ही निर्भय है, उसमें किसी का भय नहीं है। ऐसे मनुष्य बार-बार धन्य हैं, जो खंडित सुख वाले तथा आशंका पूर्ण संसार को त्याग कर आत्म-साधना में लीन रहते हैं।"
(अमरफल, जैन कथाएं भाग २१, पृष्ठ १६) यह संसारी नाता तो स्वप्न की तरह मिथ्या है। पिता-पुत्र, मां, पत्नी आदि नाते-रिश्ते झूठे हैं। ये नाते तो कर्मों का भोग और कर्म बंधों का क्षय करने के लिए होते हैं। बार-बार संसार में जन्म लेकर कभी कोई पिता बनता है, कभी भाई या पुत्र बनता है । मोह ही सब दुःखों का मूल है। मोह के कारण ही हम मुक्ति-लाभ नहीं कर पाते और बार-बार जन्म-मरण के चक्कर में घूमते हैं । आप जो शोक कर रहे हैं, वह मिथ्या है। शरीर तो शोक करने की वस्तु नहीं है। शरीर का नाश तो बार-बार होता है। आत्मा अजर अमर है, उसका कभी नाश नहीं होता। तुम्हें शरीर नाश का शोक नहीं करना चाहिये। (सफलताओं का धनी-राजकुमार महाबल, जैन कथाएं : भाग ६, पृष्ठ १७०)
जैन कथाओं में यक्ष सिद्धान्ततः यक्ष 'व्यन्तर' देवों के अन्तर्गत माने गये हैं-"व्यंतरा किन्नर किंपुरुष, महोरग, गंधर्व यक्ष, राक्षस भूत पिशाचाः ।"
(मोक्षशास्त्र, चतुर्थ अध्याय सूत्र ११) इसका (यक्ष) का अर्थ है (१) कुबेर की निधियों के रक्षक-एक प्रकार के देवता । (२) कुबेर ।
(दृष्टव्य-प्रामाणिक हिन्दी कोश, पृष्ठ ६३५) । संस्कृत-हिन्दी कोश (श्री वामन शिवराम आप्टे) में यक्ष के निम्नस्थ अर्थ मान्य हैं-(१) एक देवयोनि विशेष, जो धन सम्पत्ति के देवता कुबेर के सेवक हैं तथा उसके कोष और उद्यानों की रक्षा करते हैं । (२) एक प्रकार का भूत-प्रेत (३) इन्द्र का महल (४) कुबेर । (पृष्ठ ८२२)।
सांसारिक वैभव की प्राप्ति तथा अभिवृद्धि आदि के लिए यत्र-तत्र जैन कथाओं में यक्षों की वंदना, पूजा आदि का उल्लेख अवश्य मिलता है। यह एक लोक-विश्वास है कि यक्ष की प्रसन्नता सुख-सम्पत्ति की वृद्धि करती है
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