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तृतीय खण्ड : गुरुदेव को साहित्य धारा
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गुणसुद्वियस्स बयणं घयपरिसित्तब्व पावओ भवइ ।
गुणहीणस्स न सोहइ नेहविहूणो जह पईवो ॥ -गुणवान व्यक्ति का वचन घृत-सिंचित अग्नि के समान तेजस्वी और पथप्रदर्शक होता है जबकि गुणहीन व्यक्ति का वचन स्नेहरहित दीपक की भाँति निस्तेज और अंधकार से परिपूर्ण ।
श्रद्धय सद्गुरुदेव जब बोलना प्रारम्भ करते हैं सब समस्त सभा मंत्र-मुग्ध हो जाती है। श्रोता का मन और मस्तिष्क उनकी प्रवचनधारा में प्रवाहित होने लगता है। आपकी वाणी में हास्यरस, करुणरस, वीररस और शान्त रस सभी रसों की अभिव्यक्ति सहज रूप से होती है । आपको किंचित् मात्र भी प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होती । वक्तृत्वकला आपका सहज स्वभाव है । आपकी वाणी में मधुरता, सहज सुन्दरता है, भावों की लड़ी, भाषा की झड़ी और तर्कों की कड़ी का ऐसा सुमेल होता है कि श्रोता झूम उठते हैं । आत्मा, परमात्मा, सम्यक् दर्शन, स्याद्वाद जैसे दार्शनिक विषयों को भी सहज रूप से प्रस्तुत करते हैं। श्रोता ऊबता नहीं, थकता नहीं । आपका प्रवचन सुलझा हुआ, अध्ययनपूर्ण और सरस होता है । इसीलिए लोग आपको वाणी का जादूगर कहते हैं। किस समय क्या बोलना, कैसे बोलना और कितना बोलना यह आपको ध्यान है। आपके प्रवचनों में नदी की धारा की भाँति गति है और अग्नि ज्वाला की तरह उसमें आचार-विचार का तेज व प्रकाश है । आपकी मधुर व जादू भरी वाणी से सामान्य जनता ही नहीं, किन्तु साक्षर व्यक्ति भी पूर्ण रूप से प्रभावित होते हैं । आप जहाँ भी जाते हैं वहां की जनबोली में प्रवचन करते हैं । आपका प्रवचन साहित्य हिन्दी, गुजराती और राजस्थानो इन तीन भाषाओं में प्रकाशित हुआ है । भाषा पर आपका पूर्ण अधिकार है। आपमें विचारों को अभिव्यक्त करने की कला गजब की है । आपकी वाणी में ओज है, तेज है और शान्ति है । वस्तुतः आप वाणी के कलाकार हैं।
वाणी मानव की अनमोल सम्पत्ति है, अनुपम निधि है । यदि मानव के पास वाणी की अमूल्य सम्पत्ति न होती तो वह पशु और पक्षियों की तरह अपने विमल विचारों को मूर्त रूप नहीं दे सकता था । साहित्य, संस्कृति, धर्म, दर्शन, कला और विज्ञान का निर्माण नहीं कर सकता था । वैदिक ऋषियों ने इसी कारण वाणी को सरस्वती कहा है। 'वाचा सरस्वती" "जिह्वाने सरस्वती" कहकर वाणी के महत्त्व पर प्रकाश डाला है।
हिटलर का कहना था कि सभी युगान्तरकारी क्रान्तियों का जन्म लिखित शब्दों से नहीं, बल्कि ध्वनित शब्दों से हुआ है । वाक्य बल से जो कार्य हो सकता है वह तलवार के बल से नहीं हो सकता । इतिहास साक्षी है भगवान महावीर, महात्मा बुद्ध, ईसा, मुहम्मद, अरस्तू, मार्टिन लूथर, अब्राहम लिंकन, कामवेल, जार्ज वाशिंगटन, नेपोलियन, चचिल, हिटलर, लेनिन स्टालिन, शंकराचार्य, दयानन्द सरस्वती, विवेकानन्द, रामतीर्थ, महात्मा गांधी, सुभाष बोस आदि ने अपने ओजस्वी भाषणों द्वारा जो धर्म, समाज और राजनीतिक क्षेत्र में क्रान्ति का शंख फंका वह किससे छिपा हुआ है।
श्रद्धय सद्गुरुवर्य के प्रवचनों में व्यर्थ के काल्पनिक आदर्शों की गगनविहारी उड़ान नहीं है । और न बौद्धिक विलास है, और न धर्म-सम्प्रदाय-राष्ट्र के प्रति व्यक्तिगत या समूहगत आक्षेप है। किन्तु आपके प्रवचन जीवनस्पर्शी होते हैं । जीवन को उन्नत बनाने वाले होते हैं । जीवन की सही मुसकान को खिलाने वाले होते हैं। दिल और दिमाग को तरोताजा बनाने वाले होते हैं, समाज की विषमता और अभद्रता को मिटाने वाले, प्राचीनता में नवीनता का रंग भरने वाले, संघ और राष्ट्र की अन्धस्थिति को ज्योतिर्मय बनाने वाले होते हैं । आपके प्रवचनों में त्याग और वैराग्य का अखण्ड तेज, अनुभव का अभिनव आलोक, आत्मसाधना का गम्भीर स्वर और मानवीय सद्गुणों के प्रतिष्ठान की मोहक सौरभ महकती है । आपका उपदेश उपरिदेश से नहीं अन्तर्देश से उद्भूत होता है।
सद्गुरुदेव के प्रवचन साहित्य की अनेकानेक विशेषताएं हैं, उन सभी विशेषताओं को अंकित करना सम्भव नहीं । क्या कभी विराट समुद्र को नन्ही-सी अंजलि में भरा जा सकता है ? श्रद्धय सद्गुरुवर्य की प्रवचन शैली के कुछ उद्धरण मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ जिससे प्रबुद्ध पाठकों को परिज्ञात हो सके कि सद्गुरुदेव के प्रवचन कितने मार्मिक और हृदयस्पर्शी होते हैं । भारतवर्ष का महत्त्व भौतिक वैभव के कारण नहीं किन्तु धर्म के कारण है । इस प्रश्न पर चिन्तन करते हुए आपश्री ने कहा
"भारतवर्ष अतीत काल से ही जन-जन के मन का आकर्षण केन्द्र रहा है। किन्तु उस आकर्षण का कारण क्या अनन्त आकाश को नापने वाली हिमाच्छादित हिमालय की उच्च चोटियां हैं ? अथवा उत्ताल तरंगें और मेघगम्भीर ध्वनि से मानव मन को आल्हादित करने वाला समुद्र का गर्जन और तर्जन है ? या हँसती और मुस्कुराती हुई प्रकृतिनटी की सौन्दर्य-सुषमा है ? या रेगिस्तान की चांदी के समान चमकती हुई रेती है ? या कल-कल, छल-छल बहती हुई
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