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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन अन्य
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मानव हृदय की वीणा को झंकृत करने में संगीत का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । एतदर्थ ही मध्यकालीन सन्तों ने अपनी धार्मिक वाणी को विविध राग-रागिणियों से संपृक्तकर मानवीय संवेदना को जागृत करने का एक सफल प्रयास किया है। कबीर, नानक, सूरदास, तुलसीदास, मीरा, आनन्दघन, यशोविजय, समयसुन्दर, धातन प्रभृति सन्तों ने अपनी भक्ति-भावनाओं की श्रद्धांजलि संगीत के माध्यम से प्रस्तुत की है । भाषा की सरलता, शैली की सहजता व लोक-प्रिय धुनों पर लिखे गये गीत प्रभावशाली हैं । कवि का ध्यान केवल वैयक्तिक साधना तक ही सीमित नहीं है, किन्तु विभिन्न राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति भी वह जागरूक है। आपश्री के गीतों में फिल्मी गीतों की तरह बिजली की तड़प, सर्चलाइट की चकाचौंध और सर्कस की कलाबाजी तो नहीं है, किन्तु जो कुछ भी है वह सरल है, सहज है और सौम्य है । इन गीतों का लक्ष्य जन-जन के मन को स्वस्थ बनाना और भौतिकता से आध्यात्मिकता की ओर मोड़ना है। और जीवनोत्थान की मंगलमय प्रेरणा प्रदान करना है।
आपके गीत स्तुतिपरक, उपदेशपरक और प्रकीर्णक हैं । स्तुतिपरक रचनाओं में कवि ने प्रसिद्ध आराध्यदेव तीर्थकर, विहरमान, गणधर और सतियों की स्तुति की है। स्तुतिपरक रचनाओं में कवि की शैली एक ही रही हैकवि को ऐश्वर्य, धन एवं वृद्धि की चाह नहीं है, वह केवल भवसागर से पार होना चाहता है । सन्त होने के कारण से कविता साध्य नहीं, किन्तु साधन है । उपदेशपरक रचनाओं में कवि ने हेय बातों को छोड़ने और उपादेय बातों को ग्रहण करने को उत्प्रेरित किया है। और प्रकीर्णक रचनाएँ वे हैं जो उक्त दोनों वर्गों में नहीं आती हैं। समय-समय पर श्रोताओं का उद्बोधन देने के लिए वे रचनाएँ लिखी गयी हैं।
ऐतिहासिक व्यक्तियों के जीवन-चरित्र को आधार बनाकर काव्य लिखने की प्रवृत्ति अतीत काल से रही है। जैन साहित्य में चरित्र काव्यों की लम्बी परम्परा है । चरित्र के माध्यम से जीवन-निर्माण की पवित्र प्रेरणा दी जाती रही है। गुरुदेव श्री ने आर्य सय्यं भव, बालर्षि मणक, मानतुग, सम्राट् सम्प्रति, आर्य जम्बूस्वामी, आचार्य भद्रबाहु, आचार्य हरिभद्र, आचार्य सिद्धसेन दिवाकर, आचार्य स्थूलिभद्र, आचार्य वज्रस्वामी, रत्नाकरसूरि, आर्य रक्षित, नागार्जुन, देवद्धिगणी क्षमाश्रमण, दानवीर जगडूशाह, महाराजा कुमारपाल, आचार्य अमरसिंह जी महाराज, तुलसीदास जी महाराज, सुजानमल जी महाराज, जीतमल जी महाराज, ज्ञानमल जी महाराज, पूनमचन्द जी महाराज, ज्येष्ठमल जी महाराज, ताराचन्द जी महाराज आदि अनेक ऐतिहासिक महापुरुषों पर आपश्री ने अनेक खण्डकाव्य लिखे हैं । 'ज्योतिधर जैनआचार्य, "विमल विभूतियाँ', 'सुर सुन्दरी चरित्र', 'रत्नदत्त चरित्र', 'मानतुग-मानवती', 'गुणकर गुणावली', 'पुण्यसार चरित्र', सुखराज चरित्र', 'अमरसेन-वीरसेन चरित्र' आदि शताधिक चरित्र आपश्री ने लिखे हैं। उनमें से कुछ चरित्र प्रकाशित हुए हैं और बहुत से अप्रकाशित हैं ।
सम्राट उदायी और द्रौपदी के चरित्र में क्षमा की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है । क्षमा, कायरों का नहीं अपितु वीरों का भूषण है । क्षमा वही व्यक्ति कर सकता है जिसके जीवन में तेज है, ओज है । कवि ने कहा है
क्षमा धर्म की साधना-करते व्यक्ति समर्थ । शक्तिहीन रखते क्षमा, उसका क्या है अर्थ? मार सके मारे नहीं, उसका नाम मरद ।
जिसकी हो असमर्थता, उसकी कृतियाँ रद । जिज्ञासा ही दर्शन की जननी है। बिना जिज्ञासा के व्यक्ति सत्य-तथ्य को प्राप्त नहीं कर सकता । धर्म का सही मर्म वही व्यक्ति समझ सकता है जिसके अन्तर्मानस में प्रबल जिज्ञासा है। कवि ने सत्य ही कहा है
धर्म धर्म कहते सभी, धर्म धर्म में फर्क ।
मर्म धर्म का समझ लो, करके तर्क-वितर्क । जीवन में कभी उन्नति होती है और कभी अवनति होती है। वह एक झूले की तरह है जो कभी ऊपर, कभी नीचे आता रहता है। महामात्य शकडाल और वररुचि के जीवन प्रसंग को चित्रित करते हुए कवि ने लिखा है
क्या से क्या होता घटित, अघटित सारा कार्य । इसीलिए अध्यात्म पर, बल देते जन आर्य ।। बावल प्रतिपल में यथा, बदला करते रंग। रंग बदलता देखिए, अंगी का निज अंग ॥
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