________________
द्वितीय खण्ड : जीवनदर्शन
१८३ .
++
++
++
++
++
++
++
++
+
++
++++++
++
+
++
++
++
+
++
++
++
++
++
++++
++
+
+
+
++
०
०
संघ से व उपाचार्य पद से त्यागपत्र की घोषणा कर दी । आपश्री ने त्यागपत्र की सूचना मिलते ही विजयनगर से उपाचार्य श्री की सेवा में एक शिष्टमण्डल प्रेषित करवाया। उस शिष्टमण्डल ने उपाचार्य श्री से यह निवेदन किया कि आप त्यागपत्र न देवें । जो आपश्री से अवैधानिक कार्यवाही हो चुकी है उसका परिष्कार कर दिया जाय । पर उपाचार्य श्री भक्तों को प्रसन्न रखना चाहते थे अतः ऐसा न कर सके । आपश्री ने अपनी ओर से यही प्रयास किया कि श्रमण संघ अखण्ड बना रहे, एतदर्थ आपश्री उदयपुर भी पधारे और हर दृष्टि से उपाचार्य श्री को समझाने का प्रयास किया किन्तु किन्हीं कारणों से सफलता प्राप्त न हो सकी।
सन् १९६४ में अजमेर में शिखर सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन की सफलता के लिए आपधी ने अथक प्रयास किया । और गुलाबपुरा से लेकर अजमेर तक गुरुदेव श्री ने आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज के साथ रहकर अनेक गम्भीर समस्याओं को सुलझाने का प्रयास किया।
सन् १६६७ में बालकेश्वर बम्बई में चातुर्मास था। बम्बई में राजस्थान प्रान्तीय व्यक्तियों का कोई संगठन नहीं था। आपश्री की प्रेरणा से राजस्थान प्रान्तीय संघ की संस्थापना हुई । तथा अन्य अनेक साहित्यकार इस वर्षावास में आपश्री के परिचय में आये ।
सन् १९६६ में पूना वर्षावास के पूर्व आपश्री नासिक पधारे । उस समय मालव केसरी सौभाग्यमल जी महाराज आपश्री के साथ थे । नासिक में महाराष्ट्र के श्रावकों का एक विराट सम्मेलन का आयोजन किया गया । श्रमण संघ की उन्नति किस प्रकार हो इस पर गम्भीर रूप से विचार चर्चाएं की गई।
सन् १९७१ में आपश्री का चातुर्मास कांदावाड़ी-बम्बई में था। उस समय राजस्थान प्रान्तीय सन्त सम्मेलन का आयोजन सांडेराव-मारवाड़ में किया गाया। वहाँ संघ-उत्कर्ष की भावना से आपश्री लम्बे-लम्बे विहार कर दो महीने में सम्मेलन में पधारे और संगठन का सुन्दर वातावरण निर्माण किया।
इस प्रकार आपश्री के जहाँ भी वर्षावास हुए वहाँ पर धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कार्य-क्रम होते रहे। आपश्री के वर्षावास में उत्कृष्ट तप की आराधना होती रही है । और संघ में स्नेह-सद्भावना की अभिवृद्धि भी होती रही। जहाँ भी आपश्री पधारे वहाँ पर संघ में अभिनव जागृति का संचार होता रहा है। स्थान-स्थान पर जो सामाजिक कलह थे, जिसे राजस्थानी भाषा में 'धड़ा' कहते हैं, वे आपश्री के उपदेशों से मिटे हैं । रायपुर-मेवाड़ में कई वर्षों के धड़े थे। वे आपश्री के एक ही उपदेश से मिट गये।
नियमित दिनचर्या आपश्री के जीवन का सिद्धान्त है-कम बोलना और कार्य अधिक करना। आपश्री का मन्तव्य है मानव जीवन का भव्य प्रासाद आचार-विचार के विशाल स्तम्भों पर निर्मित होता है, आपश्री को स्वाध्याय, ध्यान, जप, चिन्तन-मनन अध्यापन, व्याख्यान, आगन्तुकों से वार्तालाप, उनकी शंकाओं का निरसन करना पसन्द है। साथ ही प्रतिदिन आपश्री योगासन भी करते हैं । हलासन, सर्वांगासन, पद्मासन, बद्ध पद्मासन और शीर्षासन ये आपके प्रिय आसन हैं। अधिक औषध सेवन को आप उचित नहीं मानते । यथासंभव आप औषधी नहीं लेते और भोजन में कम खाना और कम पदार्थ लेना आपको पसन्द है । आपका मानना है कि भोजन की मात्रा जितनी कम होगी उतनी ही साधना करने में स्फूति रहेगी। अधिक खाने से आलस्य और प्रमाद की अधिकता होगी। साधारणतया आप रात्रि को दो बजे उठते हैं। सबसे पहला कार्य है ध्यान और जप की साधना करना । उसके पश्चात् योगासन करना। और उसके बाद आपश्री आत्मालोचन करते हैं। जिसे जैन परिभाषा में "प्रतिक्रमण" कहते हैं । सूर्योदय होने के पश्चात् आप गाँव से बाहर शौच के लिए जाते हैं जिसमें श्रम, टहलना व घूमना सहज रूप से हो जाता है। उसके बाद स्वाध्याय करते हैं, फिर एक घण्टे तक प्रवचन करते हैं। प्रवचन के बाद एक घण्टे तक जप व ध्यान करते हैं । और फिर आहार ग्रहण करते हैं। आहार में दो बातों का विशेष लक्ष्य रखते हैं-संख्या और मात्रा में कम वस्तुएं लेने का । आहार के पश्चात् कुछ समय तक हलका सा विश्राम करते हैं। उस समय ऐसे साहित्य का अवलोकन करते हैं जो विश्राम में भार स्वरूप न हो । उसके बाद साहित्य का लेखन तथा अध्यापन और आगन्तुकों से विचार-चर्चा । सायंकाल सूर्यास्त के पश्चात् पुनः आत्मालोचन और आठ से नौ तक जप व ध्यान और फिर कुछ समय तक विचार-चर्चा के बाद प्रायः २ बजे तक शयन करते हैं।
इस प्रकार युक्ताहार-विहारस्य योगो भवति दुःखहा" के अनुसार आपकी जीवनचर्या सहज नियमित और बहुत ही सरल है। इसीलिए आप प्रायः स्वस्थ रहते हैं और कभी बीमारी आती है तो उसे भी ध्यान-आसन-प्राणायाम द्वारा शीघ्र ही दूर कर देते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org