________________
द्वितीय खण्ड : जीवनदर्शन
१८१
केवल मंच पर लंबा-चौड़ा भाषण देना पर्याप्त नहीं है, किन्तु सच्चे हृदय से कार्य करने की आवश्यकता है । वस्तुतः आप संगठन के सजग प्रहरी हैं ।
महास्थविर श्री जी का स्वर्गवास
1
सन् १६५५ और १९५६ में आपश्री का वर्षावास राजस्थान की राजधानी जयपुर में हुआ । प्रथम वर्षावास में कविवर्य अमरचन्द जी महाराज, स्वामी श्री हजारीमल जी महाराज, स्वामी फतेहचन्द जी महाराज, पण्डित मधुकर मुनि जी महाराज और पं० कन्हैयालाल जी 'कमल' आदि चौदह सन्त आपश्री के साथ थे और द्वितीय वर्षावास में व्याख्यान वाचस्पति श्रमणसंघ के प्रधानमंत्री श्री मदनलाल जी महाराज आपश्री के साथ थे । इस वर्षावास के उपसंहार में कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी को आपश्री के सद्गुरुदेव महास्थविर श्री ताराचन्द जी महाराज का सन्धारे से स्वर्गवास हुआ ।
अनुशासन
सन् १९५७ में आपका चातुर्मास उदयपुर में था। उस समय आपश्री के कुशल नेतृत्व से प्रभावित होकर उपाचार्य श्री गणेशीलाल जी महाराज ने मुनिश्री हस्तीमल जी और तपस्वी राजमल जी को अनुशासन-बद्धता सिखाने के लिए उदयपुर वर्षावास हेतु प्रेषित किया । आपश्री ने स्नेह सद्भावना के साथ उन्हें रखा जिसे देखकर सभी व्यक्ति चकित हो गये ।
अखण्ड रहे यह संघ हमारा
सन् १९६० में आपश्री का वर्षावास ब्यावर में हुआ । पारस्परिक विचारभेद के कारण श्रमणसंघ की स्थिति विषम हो रही थी। उस स्थिति को सुलझाने हेतु वर्षावास के पश्चात् आपश्री विजयनगर पधारे जहाँ मंत्री मुनिश्री पन्नालाल जी महाराज वृद्धावस्था के कारण विराजित थे । और आपके सन्देश को सम्मान देकर उपाध्याय हस्तीमल जी महाराज भी वहाँ पधार गये थे । आप तीनों ने मिलकर श्रमण संघ के सम्बन्ध में गम्भीर रूप से विचार विनिमय किया और 'अखण्ड रहे यह संघ हमारा' इस विषय पर ऐतिहासिक वक्तव्य भी दिया जिसका सारांश इस प्रकार है
********+++
युगों से समाज के हितैषियों के अन्तर्मानस में यह आकांक्षा थी कि हमारा श्रद्धेय मुनिगण ज्ञान और चारित्र में आचार और विचार में उन्नत होने पर भी विभिन्न सम्प्रदायों में विभक्त है जिसके कारण जिनशासन की जो उन्नति होनी चाहिए वह नहीं हो पा रही है। विभिन्न धाराओंों में प्रवाहित होने वाली सरिता अपने लक्ष्य स्थल पर नहीं पहुँच सकती । लक्ष्य स्थल पर पहुँचने के लिए अनेकता नहीं, एकता आवश्यक है । यदि हमारे ये सन्त भगवन्त एक बन जाएँ, सुसंगठित और व्यवस्थित बन जायं तो जिनशासन की महती प्रभावना हो सकती है, जैन-धर्म की विजय - वैजयन्ती हिमालय से कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक ही नहीं अपितु विराट विश्व में फहरा सकती है ।
अजरामपुरी अजमेर के पवित्र प्रांगण में सन्त सम्मेलन का सफल आयोजन इसी भव्य भावना को लेकर किया गया था जिसमें सन्तगण ने सोत्साह भाग लिया । संगठन के महत्त्व पर गंभीरता से विचारविमर्श किया। यह अत्यधिक प्रसन्नता है कि हमारे प्रतिभासम्पन्न वयोवृद्ध व अनुभवी सन्तों ने उस प्रशस्त भूमि का निर्माण किया कि जिससे पारस्परिक कटुता कम हुई तथा एक सम्प्रदाय दूसरी सम्प्रदाय के अत्यधिक सन्निकट में आई और स्नेह सद्भावना दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई।
सादड़ी का सन्त सम्मेलन उसी सद्भावना का पुण्य-प्रतीक है, जिसमें श्रद्धय सन्त गण ने शासनहित की प्रदीप्त भावना को लेकर जो महान् त्याग किया वह आज ही नहीं पर इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों की भाँति सदा चमकता रहेगा जिसकी पुण्यगाथाएँ अन्य सम्प्रदायों ने तथा राष्ट्रीय समाचार-पत्रों ने मुक्त कण्ठों से गाई ।
Jain Education International
मन-मयूर नाच उठता है,
आज उन पुण्य पलों का स्मरण करते ही हृदय गद्गद हो जाता है, मुख-कमल खिल उठता है। क्या भावना थी हमारे श्रद्धेय मुनि-मंडल की, वहां पर संघोन्नति की भावना से उत्प्रेरित होकर ही उन्होंने "श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ' की स्थापना की और उसमें अपनी पूरी-पूरी सम्प्रदायों का विलीनीकरण किया । श्रमण संघ को एक ही सूत्र में पिरोने के लिए एक सामाचारी
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org