________________
जन्म का तो नहीं, हाँ किसी जन्म में तुम्हारा बेटा रहा हूँगा । इसलिए मेरे को देखकर तुम्हारे में वात्सल्य भाव उमड़ रहा है । आज का दिन बड़ा अच्छा है। माँ मिल गयी । वृद्धा ने आँखों से आँसू बरसाते हुए कहा – बेटा, मेरे से मजाक न कर। सीधा घर को चल । गुरुदेव ने जरा गम्भीर होकर कहा- माँ, तुम्हें भ्रम हो गया है। मैं तुम्हारा इस जन्म का पुत्र नहीं हूँ । तुम्हारे को किसने कहा कि मैं तुम्हारा बेटा हूँ। मेरा जन्म तो मेवाड़ में हुआ था और मेरी आँखों के सामने ही मेरी माँ मर गयी थी, फिर तुम नई माँ कहाँ से आ गयीं ? उस वृद्धा ने आँखों से अंगारे बरसाते हुए कहा- झूठ है। बिल्कुल सफेद झूठ है । तेरी माँ मरी नहीं । मैं जिन्दा बैठी हूँ। आज से सोलह-सत्रह वर्ष पूर्व तू घर से भाग गया था। और इन साधुओं के चंगुल में फँसकर साधु बन गया और अब कहता है मेरी माँ मर गयी। उस समय उसने अपने साथ आये हुए आठ-दस व्यक्तियों को जिन्होंने रस्सियाँ छिपाकर रखी हुई थीं, उनकी ओर देखते हुए कहा – क्या देखते हो टुकुर-मुकुर । इसको रस्सियों से बाँधकर गाड़ी में डालकर ले चलो। वे ज्यों ही आगे बढ़े त्यों ही गुरुदेव ने सारे षड्यन्त्र को समझ लिया। अतः उन्हें ललकारते हुए कहा कि तुमने यदि मेरे हाथ लगाया तो ठीक न होगा । अपनी खैर चाहते हो तो दूर ही खड़े रहना । ज्योंही उन्होंने आपके आध्यात्मिक तेज को देखा त्योंही वे स्तंभित हो गये । वृद्धा ने जब यह देखा उसका षड्यन्त्र सफल नहीं हो रहा है तो आँखों से आँसू बरसाते हुए कहा - लाल, हम तेरे साथ जबरदस्ती नहीं करेंगे। तू अपनी इच्छा से चल । गाँव के लोग इस कुतूहलपूर्ण वातावरण को देखने के लिए काफी संख्या में उपस्थित हो गये । वहाँ एक समझदार व विवेकशील श्रावक थे रघुनाथमल जी लुंकड । वे आगे आये । उन्होंने सभी लोगों से कहा- तुम लोगों ने धर्म-स्थानक में क्या तमाशा बना रखा है कि हाथ में लाठियाँ और रस्सियाँ क्यों लेकर आये हो ? तुम जिसे अपना पुत्र कह रही हो वह तुम्हारा पुत्र नहीं है। तुमने मिथ्या षड्यन्त्र रचा है। देखो, उनकी जन्मस्थली के मुरब्बी लोग भी यहाँ दर्शनार्थ आये हुए हैं। उन्होंने गुरुदेव की दीक्षा जिससे साथ में आने वाले व्यक्तियों की शंका मिट गयी । और उन्होंने कहा- वृद्धा के कहने हमें क्या पता कि यह किसका बेटा है ? सत्य-तथ्य ज्ञात होने पर वे निराश होकर चल दिये। उनका षड्यन्त्र सफल न हो सका ।
द्वितीय खण्ड : जीवनदर्शन १७६
जहाँ के ये मुनि जी हैं पत्रिका आदि बतायी से ही हम आये थे।
अठ्यानाश
सन् १९४२ का वर्षावास गुरुदेव श्री का रायपुर में था। इस वर्षावास के पूर्व जब आप नाथद्वारा में विराज रहे थे उस समय नन्दलाल जी रांका के पुत्र नजरसिंह ने गुरुदेव से दीक्षा के लिए प्रार्थना की, किन्तु पारि वारिक जनों की अनुमति न होने से आपने उसे दीक्षा नहीं दी। किन्तु उन्होंने व्याख्यान में ही मुनिवेष धारण कर स्वतः 'करेमि भन्ते' का पाठ पढ़कर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। रायपुर वर्षावास में उनकी माता वहाँ आयी । रुष्ट होकर आपश्री को गालियाँ देने लगी । आपश्री उनकी गालियों को शान्ति से सुनते रहे । जब आपने कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया तब उसने हाथ की मुद्रा बनाते हुए कहा – तुम्हारा सत्यानाश जाना। गुरुदेव ने मुस्कराते हुए कहामाता जी, सत्यानाश क्यों कहती हो ? अठ्यानास कहो न ? सत्यानाश में तो एक कर्म अवशेष रह जायगा जिससे मुक्ति नहीं होगी । अठ्यानास होने पर ही मुक्ति होगी । उसका क्रोध कपूर की तरह उड़ गया । वह चरणों में गिर पड़ी गुरुदेव ! मोह बड़ा प्रबल है जिसके कारण उचित और अनुचित का कुछ भी ख्याल नहीं रहता ।
डाकू साधु बना
प्रस्तुत वर्षावास में शांति मुनिजी ने मासखमण का तप किया और ठाकुर गोविन्दसिंह जी के अत्याग्रह पर राजमहल में प्रवचन हुए। ठाकुर गोविन्दसिंह जी ने मांस, मदिरा का परित्याग किया। इस वर्षावास के पूर्व उस समय के प्रख्यात डाकू लक्ष्मणसिंह जी करमावास में आपके प्रवचन में उपस्थित हुए। आपके प्रवचन को सुनकर उन्हें अपने कृत्यों पर ग्लानि हुई। और बाद में उन्होंने डाकूपने का परित्याग कर वैदिक परम्परा के साधु बने । सत्संग का कितना गहरा असर होता है ? -- यह इस घटना से सहज ही परिज्ञात होता है।
Jain Education International
सूखी रोटी का स्वाद
सन् १९४३ में आपका वर्षावास पीपाड़ में था । वर्षावास के पूर्व आप जोधपुर पधारे थे। रास्ते में चौदह मील का विहार कर आप एक प्याऊ पर ठहरे। प्याऊ की देख-रेख एक बाबा करते थे। बाबा ने आपको देखकर कहा कि - जैन सेठ की बनायी हुई यह प्याऊ है। उनके आदेश से मैं सदा यहाँ अचित पानी रखता हूँ । आप पानी ले लीजिए मेरे पास दो सूखे और लूखे बाजरी के टिक्कर पड़े हुए हैं मेरे काम के नहीं हैं। आप चाहें तो उसे ले सकते
For Private & Personal Use Only
+++
www.jainelibrary.org