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द्वितीय खण्ड : जीवनदर्शन
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कुछ विशिष्ट सम्पर्क एवं विचार चर्चाएँ
श्रद्धेय सद्गुरुवर्य का सम्पर्क जितना जन-साधारण से है, उतना ही विशिष्ट व्यक्तियों से भी है। सन्त होने के नाते धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक दलबन्दी से आप दूर हैं, किन्तु आपका परिचय प्रायः उन सभी व्यक्तियों से है, जो देश के प्रमुख चिन्तक हैं, विचारक हैं, साहित्य-संस्कृति और धर्म के प्रति आस्थावान् हैं। आप चिन्तन के आदानप्रदान में विश्वास करते हैं । और अनुकूल या प्रतिकूल दोनों ही बातों को सुनने के अभ्यस्त हैं। यदि किसी के कथन में कुछ सार-तत्त्व रहा हुआ है तो उसे ग्रहण करने में आप संकोच नहीं करते ।
यह सत्य है, आपश्री की स्थानकवासी संस्कृति के प्रति प्रबल आस्था है, उसे आप महान क्रान्तिकारी विशुद्ध आध्यात्मिक विचारधारा और आचार का प्रतीक मानते हैं, तथापि भ्रान्त धारणाओं और रूढ़िवाद से आप सर्वथा दूर हैं । आपका मानस उदार है । समाज के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय कार्य करने वाले जिज्ञासुगण विचारक कार्यकर्ता आपश्री के निकट सम्पर्क में आये हैं । आपश्री भी उनसे आत्मीयता के साथ मिले हैं और आपश्री के स्नेह सौजन्यतापूर्ण सद्व्यवहार से वे प्रभावित हुए हैं। यहां पर कतिपय विशिष्ट व्यक्तियों के सम्पर्क के कुछ संस्मरण प्रस्तुत हैं
गुरुदेव श्री और राष्ट्रपति : भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद आध्यात्मिक प्रकृति के व्यक्ति थे । भारतीय संस्कृति, धर्म और दर्शन के प्रति उनमें अपूर्व निष्ठा थी। उनमें गंभीर विद्वत्ता थी और सर्वोच्च पद पर आसीन होने पर भी उनमें नम्रता दर्शनीय थी। आपश्री से वे देहली में सम्पर्क में आये और अनेक विषयों पर वार्तालाप हुआ। आपश्री ने बतायाभारतीय जनता के अपूर्व धैर्य, लगन और कर्तव्यपरायणता के कारण देश सर्वतन्त्र स्वतन्त्र हुआ है और उस स्वतन्त्रता का संपूर्ण श्रेय कांग्रेस को है । देश को स्वराज्य मिल गया है। उसे सुराज्य बनाना है। और उसके लिए आवश्यकता है पवित्र चरित्र की । एक दिन भारत अपनी चारित्रिक गरिमा के कारण विश्वगुरु जैसे गौरवमय पद पर अलंकृत था, किन्तु आज हमारी स्थिति अत्यधिक दयनीय है । जब तक नैतिक स्तर न उठेगा वहाँ तक देश की सही प्रगति नहीं हो सकती। नैतिकता के अभाव में कहीं जनतन्त्र जमतन्त्र न बन जाये यही चिन्ता है अतः नैतिक दृष्टि से देश को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है । साथ ही प्राचीन साहित्य और संस्कृति की ओर भी आपश्री ने उनका ध्यान आकर्षित किया और जैनाचार्यों की विविध भाषाओं में की गयी साहित्य सेवा का परिचय दिया। जनसाहित्य किसी सम्प्रदाय विशेष की नहीं, मानव मात्र की परम उपलब्धि है । उस साहित्य का अधिक से अधिक प्रचार हो यह अपेक्षित है। गुरुदेव श्री के मूल्यवान सन्देश से राजेन्द्र बाबू बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा--मेरा भी जन्म उसी पावन-भूमि में हुआ है जहाँ पर भगवान महावीर का हुआ था और आशीर्वाद प्राप्त कर प्रस्थान किया।
गुरुदेव श्री और प्रधानमंत्री श्री नेहरू : ४ दिसम्बर, सन् १९५४ को श्रद्धय गुरुदेव श्री का भारत के प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू से दिल्ली में विचार-विमर्श हुआ । वार्तालाप का प्रारंभ करते हुए सद्गुरुदेव ने कहा-भगवान महावीर विश्व की महान विभूति थी। उनका आचार उत्कृष्ट था, विचार निर्मल था; उन्होंने साधना कर अपने जीवन को निखारा था। भगवान महावीर ने आचार में अहिंसा और विचार में अनेकान्त जैसे दिव्य सिद्धान्त प्रदान किये । किन्तु आज हम उनका जन्म या स्मृति दिवस भी मनाने के लिए तैयार नहीं है । शासन को चाहिए ऐसे महापुरुष की स्मृति में एक दिन अवकाश रखा जाय।
ANSAR RANGAROO
माया
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