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God . १५६
श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ
उनके गुरुदेव हैं। आज प्रातः ही नगरसेठ का फोन था कि हमारे गुरु आ रहे हैं । आप उनका ध्यान रखना । उन्हें किसी भी प्रकार का कष्ट न हो। हमने आपके लिए ठहरने की स्पेशल व्यवस्था करवायी । गरम पानी भी तैयार था। किन्तु आप इस भयंकर जंगल में विराज गये । सन्निकट की टेकड़ियों के निवासी आदिवासियों ने आपको भगाने के लिए पत्थर फेंके । उन्होंने आपको डाकू समझा था और भयभीत होकर हमारे पास आये । और कहा दो मुंह बन्धे आये हैं, जो रात को हमारी बच्चियों व पत्नियों को लेकर भाग जायेंगे । इसीलिए हम आपको पकड़ने के लिए आये थे। किन्तु आपके पावन दर्शन कर हमारी सभी शंकाएँ निर्मूल हो गयीं। पर यह स्थान बहुत ही भयावह है । रात्रि को पानी पीने हेतु तापी नदी पर शेर आदि जानवर आया करते हैं । अतः पास ही में एक मील पर ही गाँव है। वहाँ पधार जायें ।
गुरुदेव ने अपना दृढ़ निश्चय बताते हुए कहा--कोई भी जानवर क्यों न आये। पर हम रात्रि में यहाँ से अन्यत्र नहीं जायेंगे । गुरुदेव श्री के दृढ़ निश्चय को देखकर थानेदार ने कहा हम यहाँ पर सो नहीं सकते, किन्तु कुछ आदिवासियों को यहाँ पर रखकर जाता हूँ । गुरुदेव श्री ने कहा, किसी को रहने की आवश्यकता नहीं है । वे नमस्कार कर चले गये।
रात्रि का एक बजा होगा । एक नव-हत्था केसरीसिंह दहाड़ता हुआ गुरुदेव श्री के पास होकर निकला। एक क्षण रुककर उसने गुरुदेव श्री को देखा और पानी पीने के लिए चल दिया । पानी पीकर पुनः आया और दहाड़ता हुआ आगे बढ़ गया। किन्तु आप श्री को किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं पहुंचा। उस रात्रि में अनेक जानवर भी उधर से निकले । किन्तु किसी का भी उपद्रव नहीं हुआ। गुरुदेव श्री उस रात्रि को रात भर जप की साधना करते रहे । वस्तुतः "अहिंसा प्रनिष्ठायां तत्सन्निधौ वैर त्यागः।"
इस प्रकार अन्य कई स्थानों पर विहार में आपको रात्रि-विश्राम के लिए भयंकर जंगलों में समय बिताना पडा, जहाँ पर भयंकर पशुओं का उपद्रव था । नान्देशमा ग्राम में आपका सन् १९५० में चातुर्मास था। वह पंचायती मकान जहाँ पर अत्यधिक हरियाली थी, वहाँ पर आपका वर्षावास था। उस मकान में आठ-दस सर्प रहते थे। कई बार आप श्री के पैरों के बीच में भी आ गये, किन्तु उन्होंने कभी कोई कष्ट नहीं दिया।
जहाँ हृदय में प्रेम का पयोधि उछालें मार रहा हो वहाँ पर हिंसक पशुओं का व जीव-जन्तुओं का कोई कष्ट नहीं होता । वे भी आध्यात्मिक शक्ति के सामने वैर भावना को भूल जाते हैं। संगठन के बढ़ चरण
श्रद्धय गुरुवर्य स्थानकवासी समाज के एक मूर्धन्य मनीषी और कर्मठ सन्त हैं । स्थानकवासी समाज की उन्नति किस प्रकार हो इस सम्बन्ध में आपका प्रारंभ से ही चिन्तन चलता रहा । और गहराई से इस सम्बन्ध में आप सोचते रहे । और समय-समय पर समाज की एकता के लिए आपश्री प्रयास करते रहे।
श्रमण भगवान महावीर के परिनिर्वाण के १७० वर्ष के पश्चात् पाटलिपुत्र में सर्वप्रथम सन्त-सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में द्वादशवर्षीय भीषण दुष्काल के कारण श्रमणसंघ जो छिन्न-भिन्न हो गया था, अनेक बहुश्रुत श्रमण काल कर गये थे, दुष्काल के कारण यथावस्थित सूत्र-परावर्तन नहीं हो सका था। अतः दुष्काल समाप्त होने पर सभी विशिष्ट सन्त पाटलिपुत्र में एकत्रित हुए। उन्होंने ग्यारह अंगों का संकलन किया। बारहवें दृष्टिवाद के ज्ञाता भद्रबाहु स्वामी उस समय नेपाल मे महाप्राण ध्यान की साधना कर रहे थे। उन्होंने संघ की प्रार्थना को सन्मान देकर मुनि स्थूलिभद्र को बाहरवें अंग की वाचना देने की स्वीकृति दी। स्थूलिभद्र मुनि ने बहिनों को चमत्कार दिखाया जिससे अन्तिम चार पूर्वो की वाचना शाब्दिक दृष्टि से उन्हें दी गयी।
द्वितीय सम्मेलन ई० पू० द्वितीय शताब्दि के मध्य में हुआ था। सम्राट खारवेल जैन धर्म के उपासक थे, हाथी गुफा के अभिलेख से यह प्रमाणित हो चुका है कि उन्होंने उड़ीसा के कुमारी पर्वत पर जैन मुनियों का एक संघ बुलाया था।
तृतीय सम्मेलन मथुरा में हआ। यह सम्मेलन वीर निर्वाण संवत् ८२७ से ८४० के मध्य में आचार्य स्कंदिलाचार्य के नेतृत्व में हुआ। उसी समय दक्षिण और पश्चिमी में जो संघ विचरण कर रहे थे उनका सम्मेलन वल्लभी में आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में हुआ। यह चौथा सम्मेलन था।
___ पांचवां सम्मेलन वीर निर्वाण की दशवीं शताब्दि ई० स० ४५४-४६६ के मध्य में वल्लभी में हुआ था। इस सम्मेलन के अध्यक्ष देव/गण क्षमाश्रमण थे।
___ इन पांचों सम्मेलनों में आगमों के सम्बन्ध में ही चिन्तन और मनन किया गया, क्योंकि स्मृति की दुर्बलता, परावर्तन की न्यूनता, धृति का ह्रास और परम्परा की व्यवच्छित्ति प्रभृति अनेक कारणों से श्रुत साहित्य का अधि
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