________________
Jain Education International
१४८
श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ
देखकर श्री गणेशीलाल जी महाराज का हृदय प्रेम से नाच उठा । और उन्होंने गुरुदेव श्री को उठाकर अपनी छाती से लगा लिया ।
अजमेर में महास्थविर श्री हगामीलाल जी महाराज, जिनका श्रमण संघीय सन्तों के नहीं रहा किन्तु आपश्री के विनम्रता पूर्ण सु-व्यवहार के कारण उनका हृदय परिवर्तित हो गया लिए आपश्री के बन गये ।
राजस्थान प्रान्तीय सन्त सम्मेलन में सर्वानुमति से यह निर्णय लिया गया कि श्रद्धेय हस्तीमल जी महाराज से पुनः श्रमण संघ में मिलने हेतु आपश्री उनसे वार्तालाप करें। जब आपश्री जोधपुर विराज रहे थे और वहाँ की स्थिति काफी तनावपूर्ण थी । तथापि आपश्री ने प्रवचन बन्द रखा और उनके स्वागत हेतु बहुत दूर तक पधारे। आपश्री की विनम्रता से उस समय जोधपुर संघ में सद्व्यवहार का संचार हो गया। और आपश्री का हस्तीमलजी महाराज के साथ प्रवचन भी हुआ। उनकी हार्दिक इच्छा श्रमण संघ में न मिलने की होने से वार्ता आगे न बढ़ सकी। किन्तु आपके सद्व्यवहार से वे भी सोचने के लिए विवश हो गये । वस्तुतः विनम्रता और स्नेह ऐसा श्रेष्ठ कवच है जिसे आज दिन तक कभी कोई छेद नहीं सका ।
सरलता की प्रतिमूर्ति -
श्रमण भगवान महावीर ने कहा है- सरलता साधना का महाप्राण है। चाहे गृहस्थ साधक हो चाहे संयमी साधक हो, दोनों के लिए सरलता निष्कपटता, अदम्भता आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। घृतसिक्त पावक के समान सहज सरल साधना ही निर्धूम होती है निर्मल होती है
सोही उज्जूय भूयस्स, धम्मो सुद्धस्स निव्वाणं परमं जाइ, घयसत्तेव
चिट्ठई । पावए ||
सद्गुरुदेव नख से शिख तक सरल है, निर्दम्भ हैं। जैसे अन्दर हैं वैसे ही बाहर हैं। उनकी वाणी सरल है, विचार सरल हैं । और जीवन का प्रत्येक व्यवहार भी सरल है। कहीं पर भी छुपाव नहीं, दुराव नहीं, टेढ़ े-मेढ़ रास्ते पर चलना वे साधक के लिए घातक मानते हैं । आपका स्पष्ट विचार है सरल बने बिना सिद्ध गति कदाचित नहीं हो सकती । आज आवश्यकता चरित्र की है चातुर्य की नहीं, सम्यक् आचार की है समलंकृत वाणी की नहीं; कार्य की है, विवरण की नहीं; आज साधक के जीवन में बहुरूपियापन आ गया है। उसका व्यक्तिगत जीवन अलग है, सामाजिक जीवन अलग है। उसके जीवन में दम्भ का प्राधान्य है। यही कारण है उसके जीवन का प्रभाव नहीं पड़ता । आपश्री बालक की तरह सरल हैं, मैंने देखा कि कई बार स्खलना होने पर आपश्री महास्थविर श्री ताराचन्द जी महाराज के पास बिना किसी संकोच के स्पष्ट रूप से कह देते थे। आप जीवन की सीधी राह चलने के आदी हैं, अगल-बगल की चाल आपको पसन्द नहीं है ।
आज आप इतने महान पद पर हैं, तथापि आप में वही सरलता है, वही सौम्यता है । वस्तुतः सरलता से आपके जीवन में निखार आया है । दया के देवता
साथ कभी भी सम्बन्ध और वे सदा-सदा के
दया साधना का नवनीत है, मन का माधुर्य है। दया की सरस रसधारा से साधक का हृदय उर्वर बनता है और सद्गुणों के कल्पवृक्ष फलते हैं, फूलते हैं । सन्त दया का देवता कहा जाता है । वह स्व और पर के भेद-भाव को भुलाकर वात्सल्य और दया का अमृत प्रदान करता है। सन्त का हृदय नवनीत से भी विलक्षण है । नवनीत स्व-ताप से द्रवित होता है पर ताप से नहीं, किन्तु सन्त हृदय पर ताप से ही द्रवित होते हैं, स्व-ताप से नहीं । कोमलता और कठोरता का, मोम और पत्थर का विचित्र संगम होता है । महापुरुष, वह है स्वयं के कष्टों में स्वयं के जीवन में आने वाली विपत्तियों में वज्र बनकर मुस्कराता है "सहिओ दुक्खमत्ताए पुट्ठो नो झंझाए" चारों ओर दुःखों से घिरा रहने पर भी वह घबराता नहीं और में विचलित ही होता है पर दूसरों के दुःख को देखकर द्रवित हो जाता है | आगमों में साधक का एक नाम ही 'दविए' आया है । दूसरों के दुःख से द्रवित होने वाला । उसके हृदय की यही भावना होती है
"द
जिस बिल में हो उस दिल की दवा बन जाऊं । दुःख में हिलते हुए लब की दुआ बन जाऊं ॥"
इसी ध्येय की पूर्ति के लिए वह अपना जीवन न्यौछावर कर देता है ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org