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द्वितीय खण्ड : जीवनदर्शन
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मैथिल के थे, उनका अत्यधिक सहयोग मिला । आपने ब्यावर, पेटलाद (गुजरात) और पूना के फर्गुसन कालेज में न्याय व साहित्य तीर्थ की परिक्षाएँ उत्तीर्ण की। साथ ही आपश्री ने वैदिक, बौद्ध और जैन दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन भी किया । आपने वेदों का, उपनिषदों का, गीता और महाभारत का अध्ययन किया और बौद्ध-परम्परा के विनयपिटक दीघनिकाय, मज्जिमनिकाय आदि पिटक साहित्य का और न्यायबिन्दु, प्रमाणवातिक, धर्मकोण आदि अनेक बौद्ध ग्रन्थों का और आगम साहित्य के अतिरिक्त उसकी व्याख्या साहित्य का विशेषावश्यक भाष्य, तत्त्वार्थभाष्य, सन्मति तर्क, प्रमाण-मीमांसा, न्यायावतार, स्याद्वादमंजरी, रत्नाकरावतारिका, सर्वार्थसिद्धि, समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु, योग शतक आदि का भी अध्ययन किया। आपश्री का संस्कृत, प्राकृत, गुजराती, और उर्दू भाषा पर पर खासा अच्छा अधिकार है। आपने अंग्रेजी भाषा का अध्ययन भी प्रारम्भ किया था किन्तु परिस्थितिवश उसमें विकास नहीं हो सका । आज भी आप कभी निष्क्रिय होकर नहीं बैठते। किन्तु अध्ययन, लेखन में लगे रहते हैं। आपश्री में अध्ययन के साथ प्रतिभा, मेधा और कल्पनाशक्ति की भी प्रधानता है। आज भी आपको बहुत से ग्रन्थ कण्ठस्थ हैं । जब कभी भी किसी विषय पर चर्चा करते हैं तो आप उसके तल-छट तक पहुंचते हैं।
अध्ययन से भी अध्यापन का कार्य अत्यधिक कठिन है । अध्ययन करने में स्वयं को खपाना पड़ता है जबकि अध्यापन में पर के लिए स्वयं को खपाना होता है। किसी भी ग्रन्थ के निगूढ़तम भावों को प्रथम स्वयं समझना, फिर दूसरों के दिमागों में उन भावों को बिठाना अत्यधिक कठिन कार्य है। अध्यापन कार्य में वही व्यक्ति सफल होता है जिसमें प्रतिभा की तेजस्विता होती है, स्मृति की प्रबलता होती है और अनुभवों का अम्बार होता है। आपश्री में प्रतिभा, स्मृति और अनुभूति तीनों हैं, साथ ही सुन्दर शैली भी है जिससे कठिन से कठिन विषय को भी आप सरल बनाकर प्रस्तुत करने में दक्ष हैं। रबड़ की तरह विद्यार्थी की योग्यता के अनुसार संक्षेप और विस्तार करने में आप कुशल हैं।
आपश्री ने अपने शिष्य हीरामुनिजी, देवेन्द्रमुनि, गणेशमुनिजी, जिनेन्द्र मुनि, रमेशमुनि, राजेन्द्रमुनि, दिनेशमुनि आदि को धर्म, दर्शन, आगम साहित्य आदि का अध्ययन करवाया।
___ आपश्री ने महासती शीलकुंवर जी, महासती कुसुमवती जी, महासती पुष्पवती जी, महासती कौशल्या जी महासती चन्दनबाला जी, महासती विमलवती जी आदि को आगमों की टीकाओं का अध्ययन करवाया । श्रमणी विद्यापीठ, बम्बई में भी आपने कुछ समय तक टीका ग्रन्थों का अध्ययन करवाया। अनेक सन्तों को तथा न्यायमूर्ति इन्द्रनाथ जी मोदी, वकील रस्तोगी जी, वकील हगामीलाल जी, वकील आनन्दस्वरूप जी, आदि शताधिक गृहस्थ व्यक्तियों को आपश्री ने तत्त्वार्थसूत्र, आदि का अध्ययन करवाया।
आपश्री की विद्वत्ता बहुत ही गहरी है, उसमें सूक्ष्म प्रतिभा, तर्कपटुता और वाक्चातुर्य का मधुर संगम है। जब किसी विषय को समझाते हैं तो ऐसा लगता है कि एक-एक कली खोलकर रख रहे हैं; गम्भीर से गम्भीर बात भी सहज ही हृदयंगम हो जाती है।
आपश्री का मानना है कि जीवन में शिक्षा का वही महत्त्व है जो शरीर में प्राण का है। शिक्षा के अभाव में जीवन में चमक-दमक पैदा नहीं हो सकती; गति और प्रगति नहीं हो सकती। यूनान के महान् दार्शनिक प्लेटो ने शिक्षा के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए लिखा-'शरीर और आत्मा में अधिक से अधिक जितने सौन्दर्य और जितनी सम्पूर्णता का विकास हो सकता है उसे सम्पन्न करना ही शिक्षा का उद्देश्य है।' अरस्तू ने कहा-'जिन्होंने मानव पर शासन करने की कला का अध्ययन किया है उन्हें यह विश्वास हो गया है कि युवकों की शिक्षा पर ही राज्य का भाग्य आधारित है।' एडिसन ने कहा--शिक्षा मानव-जीवन के लिए वैसे ही है जैसे संगमरमर के पत्थर के लिए शिल्पकला।' आपश्री भी यही मानते हैं कि विश्व में जितनी भी उपलब्धियाँ हैं उनमें शिक्षा सबसे बढ़कर है । शिक्षा से जीवन में सदाचार की उपलब्धि होती है, सद्गुणों के सरस सुमन खिलते हैं । दीक्षा के साथ शिक्षा भी आवश्यक है। यही कारण है कि आपने अपने शिष्यों एवं शिष्याओं को शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। उनकी शिक्षा के लिए उचित व्यवस्था की। जिस युग में सन्त सती वृन्द परीक्षा देने से कतराता था, उस युग में आपने उच्च परीक्षाएँ दी और अपने अन्न्तेवासियों को भी उच्च परीक्षाएं दिलवायीं।
आपश्री की प्रबल प्रेरणा से भंवाल चातुर्मास में वीर लोकाशाह जैन विद्यालय की संस्थापना हुई अनेक स्थानों पर धार्मिक पाठशालाएँ खुलीं । श्रमणी विद्यापीठ, घाटकोपर (बम्बई) के निर्माण में भी आपका प्रबल पुरुषार्थ रहा है।
सन् १९७५ में आपश्री का वर्षावास पूना में था। उस अवधि में विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग अध्यक्ष डा. बारलिंगे जी से आपश्री का परिचय हुआ और विश्वविद्यालय में जैन दर्शन और धर्म सम्बन्धी अध्ययन व अध्यापन की व्यवस्था के लिए एक जैन चेयर की संस्थापना करने की योजना बनी। इसमें सेठ लालचन्द हीराचन्द जी दोशी ने ढाई
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