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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्थ
नान्देशमा ग्राम में जैनियों की मुख्य आबादी थी। जैन बालकों के साथ ही बालक अम्बालाल बड़ा हो रहा था। उनके ही साथ खेलता-कूदता । तथा बाल-सुलभ क्रीड़ाओं से मां के मन को अल्हादित करता । ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के कारण आप में प्रतिभा की सहज तेजस्विता थी। आपकी बुद्धि बहुत ही विचक्षण थी। नान्देशमा में जैन श्रमण व श्रमणियों का आगमन प्रायः होता रहता था। आपकी माता जी जैन श्रमणों के तप और त्याग से प्रभावित थी। उनकी उपदेशप्रद वाणी सुनने का बड़ा शौक था। उसके निर्मल हृदय में सन्तों के प्रति सहज भक्तिभावना की धारा प्रवहमान थी। माँ के साथ पुत्र में भी धर्म का रंग लग रहा था। रूप और बुद्धि की विशेषता के कारण अन्य ग्राम निवासी भी बालक की प्रशंसा करते। वह जहाँ भी जाता उसे आदर मिलता। बालक अम्बालाल एक संस्कारी बालक था, उसमें विनय, विवेक और व्यवहार कुशलता आदि सद्गुण विकसित हुए थे।
बालक अम्बालाल जब नौ वर्ष का हुआ तब एकाएक माता बीमार हुई और धीरे-धीरे बीमारी बढ़ती चली गयी और एक दिन उसने सदा के लिए आख मूंद ली। माँ की मृत्यु को देखकर बालक अम्बालाल चिन्तन करने लगा कि मां को यह क्या हो गया? उसने अभी अक जीवन की सुषुमा ही देखी थी, किन्तु आज उसने विकराल मृत्यु को भी देखा था । वह सोचने लगा-जीवन सुन्दर है, किन्तु मृत्यु क्या है ? यह तो बहुत ही क्रूर है भयंकर है । जिस तरह मृत्यु ने मेरी माँ को मुझसे छीन लिया क्या उसी तरह मुझे भी एक दिन मरना होगा? इसी चिन्तन से उनका मन अन्दर ही अन्दर वैराग्य सागर से तरंगायित होता रहा । वैराग्य और दीक्षा
पिता स्नेहवश पुत्र को सिमटार ले गये। किन्तु मां के अभाव में उनका मन बहाँ नहीं लगा और वे पुनः अपने ननिहाल नान्देशमा आ गये। उस समय परावली गांव के निवासी सेठ अम्बालाल जी ओरडिया जिनका ससुराल नान्देशमा था, वे वहाँ आये हुए थे। उन्होंने बालक अम्बालाल को देखा तो बड़े आल्हादित हुए और उसे प्रेम से समझाकर अपने साथ परावली ले गये। सेठ अम्बालाल जी को विवाह किये हुए दस-बारह वर्ष हो चुके थे, किन्तु उनकी कोई सन्तान नहीं थी। सेठ और सेठानी सन्तान के लिए तरस रहे थे । बालक अम्बालाल को पाकर वे पुत्रवत् उसका लालन-पालन करने लगे। पुण्यवान् बालक अम्बालाल के कारण उनके घर में संपत्ति की अभिवृद्धि होने लगी। और साथ ही चिरकाल की अभिलाषा भी सन्तान होने से पूर्ण हो गयी। सन्तान-प्राप्ति से उनका मन बहुत ही आल्हादित हो गया। बालक अम्बालाल आनन्द से वहाँ रहने लगा। किन्तु सन्तान होने के पश्चात् सेठ के मन में जो आकर्षण पहले बालक अम्बालाल के प्रति था, वह कम हो गया। वह प्रतिदिन सेठ के पशुओं को लेकर जंगल में चराने के लिए जाता । और उस शान्त जंगल में क्रीड़ा करता । कभी बंसी बजाता, और कभी पशुओं के पीछे दौड़ता । पढ़ना-लिखना तो कुछ था नहीं । सारे दिन खेलना-कूदना । एक दिन जंगल में खेलते हुए पैर में पत्थर की चोट लग गयी। खून बह चला। दर्द के मारे आँखों से आंसू बहने लगे। किन्तु उस भयंकर जंगल में उसकी करुण पुकार को कौन सुनता ? सन्ध्या होने पर लड़खडाते कदमों से वह पशुओं को लेकर घर पर पहुँचा । सेठ ने विलंब से आने के कारण उसे डांटा । और उपालंभ देते हुए कहा--कि देखकर नहीं चला जाता?
संसार बड़ा विचित्र है। सर्वत्र स्वार्थ की प्रधानता होती है। अम्बालाल ने देखा कि मेरे प्रति जो मधुर स्नेह था, अब वह नहीं है । सन्तान होने के कारण सेठ की दिन-प्रतिदिन मेरे प्रति उपेक्षा हो रही है। जख्म गहरा था। सेठ ने उसकी मरहम पट्टी भी नहीं की। प्रातःकाल होते ही सेठ ने कहा-पशुओं को लेकर जंगल में चराने के लिए जाओ। तीव्र ज्वर था, वेदना से चला भी नहीं जा रहा था। तथापि वह जंगल में पहुंचा। आज उसे अपनी प्यारी माँ की स्मृति हो आयी । वह रोया। दिल खोलकर रोया। उसे सेठ के इस व्यवहार से मन में ग्लानि हुई। सन्ध्या के समय जब वह लौटकर घर पहुंचा तो खूब तेज ज्वर था। किन्तु किसी ने भी सान्त्वना नहीं दी। बालक के मन में उसकी प्रतिक्रिया हो रही थी। उसने एक दिन देखा कि जैन साध्वियाँ वहाँ पर आयी हुई हैं उसने साध्वीप्रमुखा महासती धूलकुंवर जी से पूछा--कि यहाँ पर चार साल पहले सेठ के गुरु श्री ताराचन्द जी महाराज आये थे। उन्होंने मुझे बहुत ही प्यार से अपने पास बिठाया था । बातें की थीं। सुन्दर चित्र बताये थे । और कुछ कथाएँ भी सुनायी थीं। वे इस समय कहाँ हैं ? क्योंकि मैं उनका शिष्य बनना चाहता हूँ।
साध्वीजी ने बालक के शुभ लक्षण देखकर कहा-वे इस समय मारवाड़ में हैं । यदि तेरी इच्छा हो तो हम तुझे उनके पास पहुँचवा देंगी। बालक ने दृढ़ता के साथ कहा-मैं उनके पास मारवाड़ नहीं जाऊँगा, किन्तु वे यहाँ आएंगे तो उनका अवश्य शिष्य बन जाऊँगा । आप समाचार देकर यहाँ बुला लें मैं आपको वचन देता हूँ कि वे यहाँ आयेंगे तो उनका शिष्य बन जाऊंगा।
बालक अम्बाला प्रति था, वह काम करता
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