________________
द्वितीय खण्ड : जीवनदर्शन
१३७ .
9600008
G000000009
Goodoose
[गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी के है १ सर्वांग व्यक्तित्त्व का सरल और
तटस्थ रूप-दर्शन, उन्हीं के विनयशील अन्तेवासी प्रसिद्ध विद्वान ।
श्री देवेन्द्र मुनिजी द्वारा प्रस्तुत है।] 0-0-0-0-0--0-0--0--0--0-0--0-S
।
CouTHATRI
0000000
साक्षात्कार एक युगपुरुषका
-देवेन्द्र मुनि शास्त्री
प्रत्येक युग में कुछ ऐसे विशिष्ट शिष्ट व्यक्तियों का जन्म होता रहा है, जिन्होंने अपनी महानता, दिव्यता और भव्यता से जन-जन के अन्तर्मानस को अभिनव आलोक से आलोकित किया है । जो समाज की विकृति को नष्ट कर उसे संस्कृति की ओर बढ़ने के लिए उत्प्रेरित करते रहे हैं। अपने युग के गले-सड़े जीर्ण-शीर्ण विचार व आचार में अभिनव क्रान्ति का प्राण-संचार करते रहे हैं। उनका अध्यवसाय अत्यन्त तीव्र होता है जिससे दुर्गम पथ सुगम बन जाता है। पथ के शूल भी फूल बन जाते हैं । विपत्ति भी सम्पत्ति बन जाती है और तूफान भी उनके अपूर्व साहस को देखकर लौट जाते हैं। मार्ग की प्रत्येक बाधाएँ उन्हें दृढ़ उत्साह प्रदान करती हैं और उलझन उनके लिए सुलझन बन जाती है। समस्या भी वरदान रूप होती है। उसमें एकसाथ राम के समान संकल्पशक्ति, हनुमान के समान उत्साह, अंगद के समान दृढ़ता, महावीर के समान धैर्य, बाहुबली के समान वीरता और अभयकुमार के समान दक्षता का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। वह निन्दा और प्रशंसा की किञ्चित् मात्र भी चिन्ता न कर गजराज की तरह झूमता हुआ और शेर की तरह दहाड़ता हुआ अपने लक्ष्य की ओर निरन्तर बढ़ते ही रहता है।
वह मनस्वी युग-पुरुष अपने युग का प्रतिनिधि होता है। वह समाज का मुख भी है और मस्तिष्क भी। वह समाज के विकास व कल्याण के लिए स्वयं अपने युग के अंधविश्वासों, अन्ध परम्पराओं और मूढ़तापूर्ण रूढ़िवाद से संघर्ष करता है, जूझता है। जब तक उसके तन में प्राण-शक्ति है, मन में तेज है, विचारों में उत्साह है और वाणी में ओज है, तब तक वह विकट संकटों में गुलाब के फूल की तरह मुस्कराता है। स्व-कल्याण के साथ पर-कल्याण करता है । उसका सोचना, उसका बोलना, और उसका कार्य करना सभी में जन-कल्याण की भावना अंगड़ाइयां लेती रहती है। शिव-शंकर की तरह स्वयं जहर के प्याले को पीकर समाज को सदा अमृत प्रदान करता है । राम की तरह स्वयं वनवास भोगकर भाई को राज्य देता है। रामधारीसिंह दिनकर ने सत्य ही कहा है
सब को पीड़ा के साथ व्यथा अपने मन की जो जोड़ सके। मुड़ सके जहाँ तक समय, उसे निर्दिष्ट दिशा में मोड़ सके ।। युगपुरुष वही सारे समाज का विहित धर्मगुरु होता है।
सब के मन का जो अन्धकार अपने प्रकाश से धोता है ।। स्थानकवासी जैनसमाज में समय-समय पर अनेक युगपुरुष पैदा हुए हैं जिन्होंने समाज को नया कार्य, नयी वाणी और नया विचार दिया है । जिन्होंने अपने प्राणों की बाती जलाकर समाज को नूतन आलोक से भर दिया । उनका स्वभाव निस्तरंग समुद्र की भाँति था जो हलचल और कोलाहल से दूर रहकर भी विकास की तरंगों से सदा तरंगित होता रहा है। वे सृजनात्मक शक्ति में विश्वास करते हैं और उनकी सम्पूर्ण शक्ति सदा उदात्त सृजनात्मक कार्यों में ही नियोजित रही । ऐसे महापुरुष विरोध को विनोद मान कर कार्य करते रहते हैं, यदि कोई उनकी निन्दा भी करता है, तो वे स्वयं दूसरों की निन्दा नहीं करते । उनकी पाचन-शक्ति कबूतर की तरह इतनी प्रचण्ड होती है कि वह मान-अपमान के कंकर पत्थर भी हजम कर उससे शक्ति प्राप्त करते रहते हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org