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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चन
© दो चरण !
श्री गणेशमुनि शास्त्री
दो चरण चल रहे सतत यहाँ, वसुधा का कल्मष हरने को । जगती के वैभव से विलग हो, खुशियों से झोली भरने को || अध्यात्मयोगी व उपाध्याय, राजस्थान केशरी
पर ।
यहाँ गुरुदेव मुनि पुष्कर जैसा,
है नहीं कोई इस वसुधा पर ।।
जग में अंधेरा रहे नहीं, दीपक बनकर के
जलने को । दो चरण चल रहे सतत यहाँ, वसुधा का कल्मष हरने को || उन्नत भाल, सीना विशाल, देख जिसे दर्शक मोहित है । महावीर के अनुयायियों में, मुनि पुष्कर कैसे शोभित है ।।
शंकर बनकर के वसुधा का, अब तरल - गरल सब पीने को । दो चरण चल रहे सतत यहाँ, वसुधा का कल्मष हरने को ॥ पैदल ही चलते हैं निश दिन, लेकिन नहीं विनोबा गांधी । प्रेम दया और अहिंसा की, कौन लिए जाता यह आँधी ॥
की,
हर कुंठित चेहरे पर यहाँ, अब नव आशाएं धरने को । दो चरण चल रहे सतत यहाँ; वसुधा का कल्मष हरने को || यहाँ बहा रहे अहिंसा वचनों से ये पावन गंगा । पढ़ा रहे हैं पाठ प्रेम का, मानव मन हो जिससे चंगा ॥ महावीर ने दिया विश्व को, वह वचन दो चरण चल रहे सतत यहाँ, वसुधा
मानव सेवा तेरा यह जीवन नित तेरे पावन भावों के सुमन
में महापुरुष, अर्पित है । चरणों में, समर्पित हैं ॥
सतत बहाते रहना गुरुवर, वाणी के पावन दो चरण चल रहे सतत यहां, वसुधा का कल्मष
आज पूरा करने को । का कल्मष हरने को ||
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झरने को । हरने को ||
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