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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ
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हसता हुआ मुखड़ा किसके दिल को आकर्षित नहीं मुर्धन्य मनीषीगण पसन्द करेंगे । भारतीय साहित्य की करता।
सभी विधाओं का प्रस्तुत ग्रन्थ में समावेश हुआ है। कितने ___मैं उनसे प्रभावित हुआ हूँ। मैंने अपने हृदय की ही लेख तो बहुत ही उत्कृष्ट हैं। इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ विराट् भक्ति को प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ के माध्यम से को समर्पित करते हुए मुझे सात्त्विक गौरव का अनुभव हो अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया है। देवेन्द्र मुनिजी के रहा है। गुरुदेव श्री के सम्बन्ध में अनेक संस्मरण हैं। स्नेहभरे आग्रह को मैं टाल भी कैसे सकता था ? मेरी आज इतना ही। कभी अवकाश के क्षणों में विस्तार से जो कुछ भी सेवा इस कार्य के लिए हो सकी उसे मैं अपना लिखने का विचार है । उस महापुरुष के चरणों में मेरी सौभाग्य समझता हूँ। अभिनन्दन ग्रन्थ के माध्यम से अपनी अनन्त श्रद्धा समर्पित है। साहित्य का वह उत्कृष्ट रूप प्रस्तुत किया गया है जिसे
बहुश्रुत साधक
डा० सागरमल जैन, भोपाल राजस्थानकेसरी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी महा- थी, लेकिन जब आपने चर्चित विषयों के सम्बन्ध में जो राज साहब के बहुश्रुत साधक व्यक्तित्व से मेरा प्रथम टिप्पणी की वह सटीक और प्रमाणिक थी । इसी अवसर परिचय सन १६६६ में उनकी पुस्तक 'साधना का राजमार्ग' पर आपका एक योगी स्वरूप भी देखने को मिला। संगोके माध्यम से हुआ था। यद्यपि यह परिचय परोक्ष ही ष्ठी के समय भी जब आपके ध्यान का समय होता, आप था, किन्तु पुस्तक को पढ़कर मुझे ऐसा लगा कि इसका विश्वविद्यालय के उद्यान में शिलापट्ट पर अवस्थित हो लेखक प्रतिभासम्पन्न एवं शोधपूर्णदृष्टि से युक्त है। ध्यान साधना में लीन हो जाते । आपके बहुआयामी अन्तरंग इस पुस्तक ने ही मेरे मन में उनके प्रत्यक्ष दर्शन की जिज्ञासा व्यक्तित्व का परिचय मिला, उस दिन रात्रि को, जब डा० को जाग्रत कर दिया । अजमेर के द्वितीय साधु-सम्मेलन के संगमलाल पाण्डेय, डा० सोगानी, मैं और अन्य साथी आप अवसर पर मुझे आपश्री के प्रत्यक्ष दर्शन हुए, किन्तु यहाँ की सेवा में उपस्थित हुए। ध्यान-साधना और सिद्धि के के कुछ प्रारम्भिक परिचय से अधिक का अवसर ही नहीं विविध आयामों पर चर्चा प्रारम्भ हुई। फिर तो आप था क्योंकि आपश्री व्यस्त थे, श्रमण संघीय एकता की अपनी अनुभूतियों को सहजभाव से बिखेरते चले गये । सूदृढ़ पीठिका के निर्माण में । अन्तरंग परिचय के अभाव आपके जीवन के संस्मरण को सुनकर तो हम सब स्तब्ध में यह प्रत्यक्ष दर्शन भी हृदय को पूर्ण परितोष नहीं दे थे। इस पूर्ण परिचय से हमें लगा कि राजस्थान केसरी जी पाया । यह अवसर मिला पूना विश्व विद्यालय द्वारा आयो- के सरल हृदय एवं सौम्य-मना व्यक्तित्व ने हमें बरबस ही जित जैनदर्शन सम्बन्धी सेमीनार के समय । सम्भवतः यह श्रद्धान्वित कर लिया है। वे बौद्धिक प्रतिभा एवं आध्याप्रथम अवसर था जब किसी स्थानकवासी जैन मुनि ने इस त्मिक साधना से युक्त एक ऐसे साधु-पुरुष हैं, जिन्हे पाकर प्रकार की शोधपरक विचारणा को स्वयं की उपस्थिति जैन समाज ही नहीं वरन् सम्पूर्ण मानवता गौरवान्वित है। एवं वैचारिकता से प्रभावित किया हो। यद्यपि गोष्ठि में उपाध्यायजी शतायु होकर ज्ञान-भण्डार को समृद्ध कर आपकी भूमिका एक तटस्थ द्रष्टा एवं गम्भीर अध्येता की जिनशासन की सेवा करते रहे, यही मंगल कामना है ।
विद्यानुरागी एवं कथाशिल्पी
Gडा. प्रेमसुमन जैन, उदयपुर विश्वविद्यालय पोगी श्री पुष्करमुनि जी से मेरा प्रथम पूछा कि तुम्हें कोई कठिनाई तो नहीं हैं ? छात्र प्राकृत पढ़ने : में हुआ। उन्हें ज्ञात था कि मैं उदयपुर में रुचि रखते हैं कि नहीं? इत्यादि । हमारे योग्य कोई में प्राकृतभाषा व साहित्य के अध्यापन- कार्य हो तो निःसंकोच होकर कहें। त हूँ, इसीलिए उन्होंने मुझे किसी धावक मुनि जी का विद्या के प्रति इस अनुराग और अपने करवाया था। प्रथम भेंट में ही मुनि जी के प्रति सहज आत्मीयता को पाकर मुझे बहुत संतोष हुआ।
के प्रचार-प्रसार के लिए जो भावना मैंने प्राकृत अध्ययन की गतिविधि से उन्हें परिचित कराते इत प्रेरणा मिली । मुनिजी ने विस्तार से हुए कहा कि पाठ्यक्रम में आगम ग्रन्थों से कुछ अंश निर्धा
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