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प्राणायाम : एक चिन्तन
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प्राणायाम : एक चिन्तन
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- साध्वी दिव्यप्रभा, एम. ए.
प्राणायाम प्राणों को साधने की एक विधि विशेष है। प्राण का अर्थ वायु है। श्वास को अन्दर लेना, बाहर निकालना और श्वास को शरीर के अन्दर रोकना इन तीनों क्रियाओं का सामूहिक नाम प्राणायाम है। जो वायु जीवन धारण करती है वह प्राणवायु कहलाती है। प्राण ही जीवन का आधार है। आचार्य पतंजलि ने योग के आठ अंग माने हैं, उनमें प्राणायाम का चतुर्थ स्थान है।' उन्होंने प्राणायाम को मुक्तिसाधना में उपयोगी माना है। जैन साधना पद्धति में प्राणायाम का उल्लेख तो है किन्तु उसे मुक्ति की साधना में आवश्यक नहीं माना है। आवश्यक नियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु ने प्राणायाम का निषेध किया है, क्योंकि प्राणायाम से वायुकाय के जीवों की हिंसा की संभावना है। इसी तरह आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में और उपाध्याय यशोविजय ने भी "जैनदृष्ट्या परीक्षित पातंजलि योगदर्शनं" ग्रंथ में प्राणायाम को मुक्ति की साधना के रूप में स्वीकार नहीं किया है। उनके अभिमतानुसार प्राणायाम से मन शान्त नहीं होता अपितु विलुप्त होता है । प्राणायाम की शारीरिक दृष्टि से उपयोगिता है । यशोविजयजी का मन्तव्य है कि प्राणायाम आदि हठयोग का अभ्यास चित्तनिरोध और परमइन्द्रियगेय का निश्चित उपाय नहीं है। नियुक्तिकार ने एतदर्थ ही इसका निषेध किया है। स्थानांगसूत्र में अकाल मृत्यु प्राप्त होने के सात कारण प्रतिपादित किये हैं, उनमें आनप्राणनिरोध भी एक कारण है। आवश्यक नियुक्ति का गहराई से अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि उसमें उच्छ्वास के पूर्ण निरोध का तो निषेध है, पर संपूर्ण प्राणायाम का निषेध नहीं है। क्योंकि उन्होंने उच्छ्वास को सूक्ष्म करने का वर्णन किया है।'
रेचक, पूरक और कुम्भक—ये तीन प्राणायाम के अंग हैं । अत्यन्त प्रयत्न करके नासिका-ब्रह्मरंध्र और मुखकोष्ठ से उदर में से वायु को बाहर निकालना रेचक है। बाहर के पवन को खींचकर उसे उपान द्वार तक कोष्ठ में भर लेना पूरक है। और नाभिकमल में स्थिर करके उसे रोक लेना कुम्भक है ।१० कितने ही आचार्यों के अभिमतानुसार रेचक पूरक, कुम्भक के साथ प्रत्याहार, शान्त, उत्तर और अधर ये चार भेद मिलाने से प्राणायाम के सात प्रकार होते हैं।" नाभि में से खींचकर हृदय में और हृदय से खींचकर नाभि में इस प्रकार एक स्थान से दूसरे स्थान तक पवन को ले जाना प्रत्याहार है ।१२ तालु, नासिका और मुख से वायु का निरोध करना शान्त है। कुम्भक में पवन को नाभिकमल में रोकते हैं और शान्त प्राणायाम में वायु को नासिका आदि जो वायु को निकालने के स्थान हैं वहाँ रोका जाता है। बाहर से वायु को ग्रहण कर उसे हृदय आदि में स्थापित कर रखना उत्तर प्राणायाम है और उसी वायु को नीचे की ओर ले जाकर धारण करना अधर प्राणायाम है।"
प्राणवायु के प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान ये पाँच प्रकार हैं। प्राणवायु नासिका के अग्रभाग, हृदय, नाभि, पैर के अंगुष्ठ पर्यन्त फैलने वाला है।१५ उसका वर्ण हरा बताया गया है। उसे रेचक क्रिया, पूरक क्रिया और कुंभक क्रिया के प्रयोग एवं धारणा से नियंत्रित करना चाहिए। अपानवायु का रंग श्याम है। गर्दन के पीछे की नाड़ी, पीठ, गुदा और एडी में उसका स्थान है। इन स्थानों में गमागम रेचक की प्रयोगविधि से उसे नियन्त्रित कर सकते हैं। समानवायु का वर्ण श्वेत है। हृदय, नाभि और सभी संधियों में उसका निवास है। सभी स्थानों में पुन:-पुनः गमागम करने से उस पर नियन्त्रण किया जा सकता है।
उदानवायु का वर्ण लाल है। हृदय, कण्ठ, तालु, भृकुटि एवं मस्तक में इसका स्थान है। इन्हीं स्थानों में पुन:-पुनः गमागम करने से इस पर भी नियन्त्रण किया जा सकता है।
व्यानवायु का वर्ण इन्द्रधनुष के सदृश है। त्वचा के सर्वभागों में इसका निवास है। प्राणायाम से इस पर नियन्त्रण किया जा सकता है।
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