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कुण्डलिनी योग : एक विश्लेषण १७३
साधना होती ही नहीं । अतएव साधक को सर्वप्रथम इन्द्रियनिग्रह करना चाहिए, तत्पश्चात् मनोनिग्रह । इन्द्रियनिग्रह को पूर्वयोग और मनोनिग्रह को उत्तरयोग कहते हैं। पूर्वोत्तर योगों को योग की ही दो अवस्थाएँ मानना चाहिए।
योगदर्शन सांख्यदर्शन का अनुसरण करता है, अतः वह ज्ञानशास्त्र है, ईश्वर का प्रतिपादन करता है, अतः वह भक्तिशास्त्र है, अष्टांग कर्मों का उपदेश करता है, अतः वह योगशास्त्र भी है ।
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वेदों में तीन काण्ड हैं—- ज्ञानकाण्ड, कर्मकाण्ड और उपासनाकाण्ड । इनमें कर्मकाण्ड का प्रतिपादन करने वाले उपनिषदों में कर्मयोग की विस्तारपूर्वक समीक्षा की गयी है। कर्मयोग क्रियायोग, सबीजयोग, संप्रज्ञातयोग, सविकल्पयोग अथवा चेतनसमाधि समानार्थक हैं। शाण्डिल्य, मण्डलब्राह्मण, वराह, जाबाल, ध्यानबिन्दु, योग चूडामणि, योगशिखोपनिषद, श्वेताश्वतर, सौभाग्यलक्ष्मी, योगकुण्डली, इत्यादि अनेक उपनिषदों में कर्मयोग का उपदेश किया गया है। कर्मयोग के स्वतन्त्र शास्त्र भी है योगियाज्ञवल्क्य, घेरण्डसंहिता, शिवसंहिता, गोरक्षपद्धति, योग प्रदीपिका, सिद्ध योगबीज, अमनस्कयोग इत्यादि।
ज्ञानकाण्ड के उपनिषदों में ज्ञानयोग की विस्तारपूर्वक चर्चा है। ज्ञानयोग, निर्बीजयोग, असंप्रज्ञातयोग, निर्विकल्पयोग अथवा अचेतनसमाधि समानार्थक हैं। ईशावास्य, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तरीय, छांदोग्य, श्वेताश्वतर इत्यादि अनेक उपनिषदों में ज्ञानयोग का उपदेश किया गया है। यहाँ यह भूलना नहीं चाहिए कि कर्मयोग की सिद्धि के पश्चात् ही ज्ञानयोग की उपासना की जा सकती है । १२
उपासनाकाण्ड के उपनिषदों में भक्तियोग की विस्तृत चर्चा की गई है। उपासना, सबीजयोग, सम्प्रज्ञातयोग, सविकल्पसमाधि, महाभाव इत्यादि शब्द समानार्थक हैं। जिस प्रकार कर्मयोग में निष्कामकर्म है उसी प्रकार भक्तियोग में भी प्रभुप्रीत्यर्थकर्म-कर्म है, अतः कर्मयोग के उपनिषद् भक्तियोग के ही उपनिषद् है भक्तियोग पानी सेश्वरसांख्य - ईश्वरवाद । 'योगदर्शन' सेश्वरसांख्य का समर्थन करता है; अतः वह सेश्वरसांख्य शास्त्र है। अठारह पुराण उसके अनुगामी हैं । उनमें भी तीनों काण्डों की विचारणा की गयी है ।
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योगशास्त्रों में कहीं-कहीं विविध योग का निवेश किया है- (१) आगययोग, (२) साक्तयोग और (३) शांभवयोग। इनमें से आणवयोग में अष्टांगयोग के आसन, प्राणायाम, मुद्रा, प्रत्याहारादि होते हैं। उसका प्रधान उद्देश्य इन्द्रियनिग्रही होता है, इसलिए इसमें इन्द्रियों, प्राण, मन, बुद्धि इत्यादि का अवलम्बन लिया जाता है। कुण्डलिनी शक्ति जागने के पश्चात् वही आणवयोग शाक्तयोग का स्वरूप धारण कर लेता है और आगे चलकर शाक्तयोग भी शांभवयोग का स्वरूप धारण कर लेता है। इससे यह सिद्ध होता है कि योग एक है किन्तु उसकी अवस्थाएँ तीन हैं।
४. समस्त योगों का आधार कुण्डलिनी
जो साधक प्रयार्थी नहीं है परन्तु श्रेयार्थी है उसको श्रेय की सिद्धि के लिए कुण्डलिनी को जगाना पड़ेगा । कुण्डलिनी को जगाये बिना इष्टसिद्धि असम्भव है, क्योंकि समस्त योगों का आधार कुण्डलिनी है। वही योग का प्रवेशद्वार है, उसके बिना समस्त उपाय निरर्थक हैं ।
ज्ञान भक्ति एवं योग के विविध साधनों के अनुष्ठानों का शुभफल एक ही है, कुण्डलिनी की जागृति ।
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मोक्ष के बन्द द्वारों के मध्य में एक विलक्षण ताला है। वह बिना कुञ्जी के नहीं खुलता। उसकी कुञ्जी भी
सबके लिए सुलभ नहीं है। उस कुञ्जी का नाम है कुण्डलिनी । १४ मनुष्य के शरीर में कन्द के ऊर्ध्वभाग में यह सर्पाकार कुण्डलिनी सुषुम्ना के मार्ग को रोककर कुण्डली लगाकर सोई हुई है। इस कारण उस मार्ग पर कोई यात्रा नहीं कर सकता । संसारी साधक उसका आश्रय लेकर भोग भोगते हैं, परिणामतः वे बन्धन से बँधते हैं और संन्यासी साधक उसका आश्रय लेकर योग-साधना करते हैं, परिणामतः वे मुक्ति प्राप्त करते हैं।" अधोगामी शुक्र रोग, वृद्धावस्था, मृत्यु और अज्ञान का कारण है और ऊर्ध्वगामी शुक्र आरोग्य, युवावस्था, अमरता और ज्ञान का कारण है। इसीलिए श्रीकृष्ण ने काम को ज्ञानी का शत्रु कहकर अर्जुन को ऊर्ध्वरेता बनने का आदेश दिया है ।"
कुण्डलिनी को जगाने का साहस कोई बिरला योगी ही कर सकता है। सामान्य साधकों से यह कार्य नहीं हो पाता । उनके लिए यह कार्य अशक्य ही है। सिद्धियों के उपासक तो कुण्डलिनी को दूर से ही वन्दन करके वापस लौट जाते हैं । हम कुण्डलिनी को जानते हैं--ऐसा प्रलाप करने वाले साधक सहस्रों की संख्या में हैं, परन्तु उनमें से एक भी साधक कुण्डलिनी को यथार्थ रूप में नहीं पहचानता । जो कुण्डलिनी को जानता है, वह योग को जानता है, यह शास्त्रवचन मिथ्या नहीं है ।" प्राणोत्थान भिन्न है और कुण्डलिनी की जागृति भिन्न है। हां, यह सत्य है कि प्राणोत्थान द्वारा आसन, मुद्रा, प्राणायाम, ध्यान, इत्यादि अपने आप होते हैं, तथापि उनके द्वारा चक्रों और ग्रन्थियों का भेदन नहीं होता
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