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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड
अक्षर हैं और आठ पंखुड़ियों पर "नमो सिद्धाणं" "नमो आयरियाणं" "नमो उवज्झायाणं" "नमो लोए सव्वसाहूणं" "नमो नाणस्स" "नमो दंसणस्स" "नमो चरित्तस्स" "नमो तवस्स" इन पदों की संस्थापना का ध्यान करना चाहिए।
जाप व ध्यान में कभी भी शीघ्रता नहीं करनी चाहिए। धैर्य से आगे बढ़ना चाहिए। प्रारम्भ में पांचदस मिनट का समय ही पर्याप्त है। ज्यों-ज्यों आनन्द की अभिवृद्धि होगी त्यों-त्यों समय स्वतः ही बढ़ जायेगा। यह सत्य है कि प्रारंभिक स्थिति में मन जाप में जैसा चाहिए वैसा नहीं लगता किन्तु नियमित व सतत अभ्यास से मन पूर्णरूप से स्थिर हो जाता है । और एक दिन वह स्थिति आ जाती है कि निरन्तर बिना प्रयास के भी जाप चलता रहता है जिसे महर्षियों ने अजपाजप कहा है। एतदर्थ ही आचार्यों ने कहा हैं- "जपात् सिद्धिः जपात् सिद्धिः जपात् सिद्धिर्न संशयः।"
विधिवत् जाप को प्रारम्भ करने से तीव्र गति से प्रगति होने लगती है। मन की अत्यधिक प्रसन्नता से क्लेश दूर हो जाते हैं। क्लेशयुक्त मन ही संसार है और क्लेशरहित मन ही मोक्ष है। अज्ञानी मानव संपत्ति में सुख मानता है, किन्तु संपत्ति विपत्ति का मुल है। नमस्कार महामन्त्र का स्मरण आत्मदशा का स्मरण है, आत्मविकास का प्रथम सोपान है और जीवन का चरम विकास भी। कल्पना कीजिए, एक महाविद्यालय है। उसमें प्रारंभिक वर्णमाला का अभ्यास भी प्रारम्भ किया जाता है और अंतिम पदवी समारोह भी। इसी तरह धर्म का प्रारम्भ भी नमस्कार महामन्त्र से ही होता है और पूर्णाहुति भी नमस्कार महामंत्र से ही होती है। अरिहन्त भगवान भी "नमो सिद्धाणं" का स्मरण करते हैं । नमस्कार महामन्त्र का स्मरण ही भावजीवन है और उसका विस्मरण ही भावमृत्यु है। नमस्कार महामन्त्र का स्मरण ही सच्ची संपत्ति है क्योंकि हमारी आत्मा में ही परमात्म-तत्त्व रहा हुआ है। आत्मा के आवरण को हटाने के लिए और स्व-स्वरूप का संदर्शन करने के लिए नमस्कार महामन्त्र का जाप अपेक्षित है। - हम पहले बता चुके हैं कि नमस्कार महामन्त्र का जाप करने वाले साधक को सतत अभ्यास करना चाहिए। सामान्य साइकिल, मोटर आदि वाहन चलाने जैसी प्रवृत्ति के लिए भी सतत अभ्यास आवश्यक है। विश्वविश्रुत महान् योद्धा, जादूगर, जो अपने चमत्कार से जनमानस को चमत्कृत कर देते हैं वे एक दिन के अभ्यास से नहीं, किन्तु दीर्घ काल के सतत अभ्यास से ही ऐसा करने में सक्षम बनते हैं। उसी प्रकार साधक को भी निरन्तर अभ्यास अपेक्षित है । उसे धैर्यपूर्वक अत्यन्त सम्मान के साथ नमस्कार महामन्त्र का जप करना चाहिए। जप-साधना से जीवन में पवित्रता और निर्मलता आती है और यह साधक के लिए बहुत ही आवश्यक है।
सन्दर्भ तथा सन्दर्भ स्थल१ धर्म प्रति मूलभूता वन्दना ।
-श्री ललित विस्तरा २ चित्तरत्नमसंक्लिष्टमान्तरं धनमुच्यते ।
-श्री अष्टप्रकरण ३ जेह ध्यान अरिहंत को तेहिज आतम ध्यान ।
फेर कुछ इणमें नहीं एहिज परम निधान ।।
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