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योग-साधना : एक पर्यवेक्षण
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८. सुश्रामण्यता शास्त्रों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को संयम के नाम से सम्बोधित किया गया है। साधक को जिन विरोधी अवस्थाओं में प्रस्तुत संयम पालन करने में कठिनाइयाँ समुत्पन्न हों उनसे बचने का संकेत किया है । आचार्यों ने साधक को प्रेरणा देते हुए कहा है—तुम्हें प्राणों से भी अधिक संयम प्रिय होना चाहिए । प्रतिपल साधनों में सावधानी रखना आवश्यक है।
विनम्रता, निष्कपटता, सन्तोष, आदि सम्यक्दर्शन के मूल गुण हैं । तप से संयम की वृद्धि होती है तथा निर्दोष जीवन का विकास होता है। अशुभ कर्मों की निर्जरा होने से आध्यात्मिक प्रगति होती है। संयम और तप की आराधना करते समय यदि शारीरिक कष्ट भी होते हैं तो भी वह विचलित नहीं होता। चाहे कष्ट हो, चाहे आनन्द हो उसके लिए व्यर्थ है। वह तो दोनों ही स्थितियों में सम रहता है। सुश्रामण्यता का अर्थ हम जीवन की निर्मलता से ले सकते हैं जिसमें पवित्र जीवन व एकाग्र मन से संयम की ओर प्रगति की जाती है।
६. प्रवचनवत्सलता जिनवाणी और संघ के प्रति वात्सल्य और प्रीति विकसित करने का प्रयास करना चाहिए। आधुनिक व्यस्त जीवन की दृष्टि से प्रवचनवत्सलता का अर्थ है वीतरागवाणी तथा सद्साहित्य की सात्विक गौरव के साथ विकसित करने की वृत्ति; धर्म से सम्बन्धित साहित्य का विविध स्वरूपों में अध्ययन-मनन करना; देश, समाज में जो अन्य प्रवाह प्रचलित हैं उनसे भी अपने आपको अवगत कराते हुए अपने धर्म के सम्बन्ध में आस्था एवं भक्ति को बढ़ाने हेतु मानसिक व बौद्धिक वातावरण तैयार करना; सद्-साहित्य का अपने मतावलम्बियों और अन्य लोगों को भी सम्यकप से परिचय कराना । इससे विश्वास में अभिवृद्धि होती है तथा चिन्तन करने की क्षमता बढ़ती है।
१०. प्रवचन उद्भावना जैन वह है जिसके अन्तर्मानस में जिनवाणी के प्रति गहरी निष्ठा-भक्ति हो और मन में जिनवाणी के प्रति किंचित् मात्र भी शंका न हो । जैन सम्बोधन को सुनकर स्वयं गौरव का अनुभव करे। स्वयं के द्वारा ऐसा कोई कार्य न हो जिससे वातावरण दूषित हो-इस दृष्टि से बहुत ही सावधानीपूर्वक और योजनानुसार जीवन यापन करे । इस प्रकार जीवन जीने से संघ की वृद्धि होती है और समान रूप से चिन्तन करने वाले व्यक्तियों का समूह एक-दूसरे को प्रेरणा देता हुआ व्यक्ति और समाज का विकास करता है। प्रवचन प्रभावना के द्वारा हम एक-दूसरे का उत्साह बढ़ाते हैं।
संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि जैन मनीषियों ने श्रमण-श्रमणी, श्रावक-श्राविका एवं सम्यक्दृष्टि साधक के सर्वांगीण विकास के लिए जो सिद्धान्त प्रस्थापित किये हैं, उनसे जीवन का उत्तरोत्तर विकास होता है । उन्होंने फूल, स्वर्ण, अन्न, प्रभृति विविध उपमाएँ देकर जीवन की उपयोगिता को समझाने का सुन्दर प्रयास किया है। विकसित जीवन की प्रेरणा ही है। यह सिद्धान्त हजारों-लाखों वर्ष पुराने होने पर भी आज भी उनमें वही चमक और दमक है । जीवन के लिए उपयोगी हैं। आधुनिक युग में परिवर्तन होते हुए भौतिक वातावरण में प्रकाशस्तम्भ के समान मार्गदर्शक हैं।
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