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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड
अब जिस योगशास्त्र ग्रन्थ के परिचयस्वरूप में कुछ लिखना प्रस्तुत है उसका नाम है अकुलागमशास्त्र । इस ग्रन्थ में उपरिनिर्दिष्ट सभी विशेषताएं मौजूद हैं। मुख्यत: शिव-पार्वती संवाद-रूप इस संस्कृत ग्रन्थ को भगवान नारायण ने नारदजी को उपदेशरूप में बनाया है, ऐसे ढंग में लिखा है। इसमें करीब ७०० श्लोक हैं और यह नौ या दस पटलों में विभक्त हैं। ढांचे से मालूम होता है कि यह शैव और वैष्णव दोनों धाराओं का समन्वितरूप है। इस पर भगवद्गीता का विशेष प्रभाव है और शैली में यह मध्ययुगीन कुछ ग्रन्थों का अनुकरण करने वाला है। प्रकाशित ग्रन्थों की सूचियाँ देखने से पता चलता है कि यह ग्रन्थ सम्भवतः अभी तक मुद्रित नहीं हुआ है।
इसकी एक प्रति पुणे (पूना) के संस्कृत-प्रगत-अध्ययन-केन्द्र में है जो जांभूलपाडा के श्री वीरेश्वर जी दीक्षित से भेंट आयी है। म. म. गोपीनाथ कविराज सम्पादित 'तान्त्रिक साहित्य' इस तन्त्र वाङ्मय के सूचीरूप ग्रन्थ से मालूम होता है कि इस ग्रन्थ की पाण्डुलिपियाँ लन्दन के इण्डिया ऑफिस में, कलकत्ते की एशियाटिक सोसायटी में और पुणे के भाण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधन मन्दिर में हैं। इसके अलावा स्व. हरप्रसाद शास्त्रीजी द्वारा दी हुई विवरणात्मक सूची के दूसरे खण्ड में एक प्रति का उल्लेख है। न्यू कैटलोगस कैटलोगोरम में और भी तीन प्रतियों के उल्लेख हैं जिनमें एक अमरीका के पेन्सिल्वानिया विद्यापीठ के संग्रह में है। दूसरी मैसूर के राजकीय (अब विद्यापीठ में) ग्रन्थ संग्रह में है, और एक कलकत्ते की एशियाटिक सोसायटी में है।
संस्कृत केन्द्र की प्रति में १ से ४ और ६ से १ पटल हैं। भाण्डारकर मन्दिर की प्रति में पूरे नौ पटल मौजूद हैं । पाँचवाँ पटल सबसे छोटा केवल १८ श्लोकों का है। इण्डिया ऑफिस की प्रति में दस पटल हैं। इन प्रतियों में श्लोक संख्या क्रमशः ६८४, ६६३ और ७६७ है । तुलनात्मक सारणी नीचे दी गयी हैपटल सं. केन्द्र प्रति भां. मन्दिर प्रति
इण्डिया ऑफिस प्रति १२२
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इससे यह स्पष्ट होता है कि श्लोक संख्या में और पाठ में बहुत कुछ बढ़-घट हो गयी है । गोपीनाथ कविराज जी ने भां. मन्दिर की प्रति (संवत् १७५८) सबसे पुरानी मानी है और यही इस ग्रन्थ के लेखन का काल निश्चित किया है। संस्कृत केन्द्र की प्रति का लिपिकाल संवत् १८३५ है। भाण्डारकर मन्दिर की प्रति के अन्त में श्लोक संख्या ५७५ लिखी है जबकि असल में उसमें ६६७ श्लोक हैं। हरप्रसाद शास्त्रीजी को उपलब्ध प्रति में श्लोक संख्या १००० दी गई है। भाण्डारकर मन्दिर प्रति में एक जगह पत्र की बाजू में 'नकुलागम' ऐसा नाम लिखा है।
इसी ग्रन्थ का अन्य नाम योगसारसमुच्चय है। हो सकता है कि यही इस ग्रन्थ का असली नाम हो और अनन्तर जब इसे महत्व देने के लिए ईश्वर-पार्वती संवादरूप आगम के ढाँचे में रखा गया तब इसे अकुलागमतन्त्र यह नाम दिया गया हो।
कश्मीर शैव सम्प्रदाय में 'अकुल' शब्द का कुछ महत्व है। लकुलीश नामक महात्मा के नाम से एक सम्प्रदाय प्राचीन काल में था जो शायद ज्ञात शव सम्प्रदायों में सबसे अधिक प्राचीन होगा। आगे चलकर उसे ही नकुलीश कहा गया। इस शब्द का मूल कारण भूल जाने से नकुलीश के आद्याक्षर 'न' को नकारात्मक-अभाववाची समझकर उसे आगे 'अकुलीश' बनाया गया। फिर 'अकुल' शब्द को 'कुल' शब्द के सन्दर्भ में लिया गया। कुल शब्द का उपर्युक्त शैव सम्प्रदाय में एक महत्वपूर्ण स्थान है जिसके कारण एक पूरा सम्प्रदाय ही कौल नाम से प्रसिद्ध हुआ। कौल मार्ग को ही अनुत्तर या निरुत्तर कहते हैं । इस सन्दर्भ में अकुलागम से एक प्रलोक यहाँ उद्धृत करना उचित है
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