SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ भय लगता था कि कहीं आप नाराज हो जाएंगे । और राजस्थानी, मराठी भाषा के भी आप मर्मज्ञ विद्वान् हैं । कहेंगे कि बुद्ध ! तुझे इतना भी समझ में नहीं आता। आप जिस क्षेत्र में पधारते हैं वहाँ की जन बोली में प्रवचन पर आपश्री सदा मुझे प्रेरणा ही देते रहे । और कहते करने में आपको विशेष आनन्द आता है। यद्यपि आपश्री रहे कि श्रम करो, आज नहीं कल समझ में आ जायगा। के प्रवचन में भाषा का पाण्डित्य नहीं, किन्तु विचारों का मुझे ऐसा लगा कि कमजोर से कमजोर विद्यार्थी को भी पाण्डित्य मुख्य होता है । आपश्री का मानना है कि प्रवचन यदि गुरुजन स्नेह-सद्भावना के साथ प्रेरणा दें तो वह भी की भाषा सीधी, सरल और सरस होनी चाहिए, जो आगे बढ़ सकता है। गुरुदेव श्री की पढ़ाने की कला भी श्रोताओं की समझ में आ सके। जो प्रवचन भाषा की गजब की है। वे दुरूह से दुरूह विषय को भी इतना सरल जटिलता व दुरूहता के कारण श्रोताओं को समझ में न बनाकर प्रस्तुत करते हैं कि विद्यार्थी के मष्तिष्क में वह आये उस प्रवचन से विशेष लाभ नहीं होता। अतः आपश्री विषय अच्छी तरह से पैठ जाता है। प्रवचनों में सरल भाषा का प्रयोग करते हैं, जिसे श्रोताओं गुरुदेवश्री की वाणी में भी अमृत जैसा माधुर्य है; को समझने में किसी प्रकार की दिक्कत नहीं होती। उस माधुर्य का पान करने के लिए श्रोताओं के कर्ण सदा आपके प्रवचनों में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश, राजस्थानी, पिपासु रहते हैं। मैंने आपश्री के वर्षावास में अनेक गुजराती, मराठी, उर्दू और फारसी और अंग्रेजी के प्रवचन सुने । प्रवचनों में जहां विषय की गंभीरता है, वहाँ सुभाषित भी समय-समय पर प्रयुक्त होते हैं। साथ ही प्रस्तुत करने का तरीका इतना आकर्षक कि श्रोता कभी स्वरचित गीतिकाओं का भी आप प्रयोग करते हैं। जिससे बोर नहीं होते। प्रवचनों के बीच शान्तरस के साथ हास्य- वातावरण में एक समा बंध जाता है। रस का इस प्रकार प्रयोग करते हैं कि हँसी की फुलझड़ियाँ श्रद्धय गुरुदेव श्री स्थानकवासी समाज के एक ज्योतिछूटने लगती हैं। सारा वातावरण आल्हाद से तरंगित हो धर नक्षत्र हैं। जपसिद्ध योगी हैं। आपकी जप-साधना में जाता है। प्रवचन तो सभी करते हैं, किन्तु प्रवचन की यह महान् विशेषता है कि जो भी अधि-व्याधि और कला बहुत ही कम लोगों में होती है। आपश्री के प्रव- उपाधि से ग्रसित व्यक्ति आपके जप के समय निष्ठापूर्वक चनों में आध्यात्मिक, सांस्कृतिक विषयों के साथ ही सामा- बैठता है वह उन व्याधि और उपाधियों से मुक्त हो जाता जिक विषयों का भी गहराई से विश्लेषण होता है। आप- है। हजारों व्यक्ति जो व्याधियों से छटपटाते आते हैं वे श्री संगठन के प्रबल पक्षधर हैं। संकीर्णता आपके मानस गुरुदेव श्री के मांगलिक को श्रवण कर प्रसन्नता से झूमते में नहीं है। यही कारण है कि आपधी संपूर्ण जैन समाज हुए बिदा होते हैं। आपकी जप-साधना को देखकर जो में एकता देखना चाहते हैं। सम्प्रदायवाद के कारण जो व्यक्ति जप नहीं करते हैं उनके अन्तर्मानस में भी जप के पारस्परिक मनोमालिन्य चल रहा है, उसे आप ठीक नहीं प्रति गहरी निष्ठा पैदा हो जाती है और वे भी जप हेतु समझते । आपश्री का मन्तव्य है कि एकता ही जीवन प्रवृत्त हो जाते हैं। गुरुदेव श्री की प्रेरणा से मेरा मानस है। कलियुग में संगठन की शक्ति ही महान् है- भी जप की ओर आकर्षित हुआ और मुझे भी जप करने "संघे शक्तिः कलौ युगे।" जान डिकिन्सन के शब्दों में- में अपार आनंद का अनुभव होने लगा। By uniting we stand, by dividing we fall- मैं अपना परम सौभाग्य समझती हैं कि श्रद्धय सद“संघटन में हमारा अस्तित्व कायम रहता है, विभाजन में गुरुवर्य के मुखारविन्द से मेरी आहती दीक्षा हुई। आप हमारा पतन होता है।" उतः संघठन के लिए आपश्री मेरे दीक्षा गुरु, शिक्षा गुरु और जीवन-निर्माता हैं। आपश्री सतत प्रेरणा देते रहते हैं। आपश्री की वह प्रबल प्रेरणा की प्रबल प्रेरणा से मेरे जीवन का विकास हुआ है। और की उक्ति मुझे स्मरण आ रही है आपश्री के मंगल आशीर्वाद से सदा विकास होता रहेगा। "वीर प्रभु के शासन में हम एक हैं जो एक हैं। हमारी यही मंगल कामना और भावना है कि आपश्री की संगठन की वीणा बजाएँ नेक हैं जी नेक हैं ॥" छत्र-छाया में संयम-साधना, ज्ञान-आराधना के पवित्र पथ गुरुदेव श्री बहुभाषाविद हैं। संस्कृत, प्राकृत का तो पर निरन्तर बढ़ती रहें। यही मेरा हार्दिक अभिनन्दन, आपने गम्भीर अध्ययन किया किन्तु हिन्दी, गुजराती, अभिनन्दन है। ----------- -------------------------0--0-0--0 स्नेह-सौजन्य की सरिता तुम्हारे हृदय में बहती। परहित निरत जीवन में मधुरता की महक रहती ॥ an-o--0--0----- --------------------------------- For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy