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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड
आचार-पद्धति का परिचय देते हुए इच्छित तत्त्वों को अपने अधीन बनाने का मार्ग दिखाता है।" इस प्रकार यह "साधना-शास्त्र" है। इसमें साधना के अनेक प्रकार दिखाये गये हैं, जिनमें देवताओं के स्वरूप, गुण, कर्म आदि के चिन्तन की प्रक्रिया बतलाते हुए “पटल, पद्धति, कवच, सहस्रनाम तथा स्तोत्र" इन पाँच अंगों वाली पूजा का विधान किया गया है। इन अंगों का कुछ विस्तार से परिचय इस प्रकार है
(क) पटल-इसमें मुख्य रूप से जिस देवता का पटल होता है, उसका महत्त्व, इच्छित कार्य की शीघ्र सिद्धि के लिए जप, होम का सूचन तथा उसमें उपयोगी सामग्री आदि का निर्देश होता है। साथ ही यदि मन्त्र शापित है, तो उसका शापोद्धार भी दिखाया जाता है।
(ख) पद्धति-इसमें साधना के लिए शास्त्रीय विधि का क्रमशः निर्देश होता है, जिसमें प्रातः स्नान से लेकर पूजा और जप-समाप्ति तक के मन्त्र तथा उनके विनियोग आदि का सांगोपांग वर्णन होता है। इस तरह नित्यपूजा और नैमित्तिक-पूजा दोनों प्रकारों का प्रयोग-विधान तथा काम्य-कर्मों का संक्षिप्त सूचन इसमें सरलता से प्राप्त हो जाता है।
(ग) कवच-प्रत्येक देवता की उपासना में उनके नामों के द्वारा उनका अपने शरीर में निवास तथा रक्षा की प्रार्थना करते हुए जो न्यास किये जाते हैं, वे ही कवच रूप में वर्णित होते हैं। जब ये "कवच" न्यास और पाठ द्वारा सिद्ध हो जाते हैं, तो साधक किसी भी रोगी पर इनके द्वारा झाड़ने-फूंकने की क्रिया करता है और उससे रोग शान्त हो जाते हैं। कवच का पाठ जप के पश्चात् होता है। भूर्जपत्र पर कवच का लेखन, पानी का अभिमन्त्रण, तिलकधारण, वलय, ताबीज तथा अन्य धारण वस्तुओं को अभिमन्त्रित करने का कार्य भी इन्हीं से होता है।
(घ) सहस्रनाम-उपास्यदेव के हजार नामों का संकलन इन स्तोत्रों में रहता है। ये सहस्रनाम ही विविध प्रकार की पूजाओं में, स्वतन्त्र पाठ के रूप में तथा हवन-कर्म में प्रयुक्त होते हैं। ये नाम अति रहस्यपूर्ण देवताओं के गुण-कर्मों का आख्यान करने वाले, मन्त्रमय तथा सिद्धमन्त्र रूप होते हैं । अतः इनका भी स्वतन्त्र अनुष्ठान होता है।
(ङ) स्तोत्र--आराध्यदेव की स्तुति का संग्रह ही स्तोत्र कहलाता है। प्रधानरूप से स्तोत्रों में गुण-गान एवं प्रार्थनाएँ रहती हैं किन्तु कुछ सिद्ध-स्तोत्रों में मन्त्र-प्रयोग, स्वर्ण आदि बनाने की विधि, यन्त्र बनाने का विधान, औषधि-प्रयोग आदि भी गुप्त संकेतों द्वारा बताये जाते हैं। तत्त्व, पंजर, उपनिषद् आदि भी इसी के भेद-प्रभेद हैं।
इन पाँच अंगों से पूर्ण शास्त्र 'तन्त्रशास्त्र' कहलाता है। कलियुग में तन्त्रशास्त्रों के अनुसार की जाने वाली साधना शीघ्र फलवती होती है । इसीलिए कहा गया है कि
विना ह्यागममार्गेण नास्ति सिद्धिः कलौ प्रिये । इसी प्रकार 'योगिनी तन्त्र" में तो यहाँ तक कहा गया है कि
निर्वीर्याः श्रौतजातीया विषहीनोरगा इव । सत्यादौ सफला आसन् कलो ते मृतका इव ॥ पांचालिका यथा भित्तौ सर्वेन्द्रिय-समन्विताः । अमूरशक्ताः कार्येषु तथान्ये मन्त्रराशयः ।। कलावन्योदितर्मार्गः सिद्धिमिच्छति यो नरः । तृषितो जाह्नवीतीरे कूपं खनति दुर्मतिः ॥ कलौ तन्त्रोदिता मन्त्राः सिद्धास्तूर्णफलप्रदाः ।
शस्ताः कर्मसु सर्वेषु जप-यज्ञ-क्रियाविषु ॥ वैदिक मन्त्र विषरहित सर्यों के समान निर्वीर्य हो गये हैं। वे सतयुग, त्रेता और द्वापर के सफल थे; किन्तु अब कलियुग में मृतक के समान हैं। जिस प्रकार दीवार के समान सर्वइन्द्रियों से युक्त पुतलियाँ अशक्त होती हैं, उसी प्रकार तन्त्र से अतिरिक्त मन्त्र-समुदाय अशक्त है। कलियुग में अन्य शास्त्रों द्वारा कथित मन्त्रों से जो सिद्धि चाहता है वह अपनी प्यास बुझाने के लिए गंगा के पास रहकर भी दुर्बुद्धिवश कुआं खोदना चाहता है । कलियुग में तन्त्रों में कहे गये मन्त्र सिद्ध हैं तथा शीघ्र सिद्धि देने वाले तथा जप, यज्ञ और क्रिया आदि में भी प्रशस्त हैं।
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