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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड
तान्त्रिक-साधनाएँ : एक पर्यवेक्षण
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D डा. रुद्रदेव त्रिपाठी [एम.ए., पी-एच.डी., साहित्य-सांख्ययोगदर्शनाचार्य]
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भारतीय मानव के जन-जीवन को सुखी, समृद्ध तथा शान्तिमय बनाने के लिए पूर्व महर्षियों ने जिन उपायों का आख्यान किया है, उनमें "तान्त्रिक साधना" का स्थान भी प्रमुख है। यह साधना इहलौकिक और पारलौकिक कल्याण की कामना से आविर्भूत होने के कारण युगों से परीक्षा की कसौटी पर खरी उतरती रही है। तपःपूत महर्षियों ने आत्मसाधना के द्वारा इसके सत्य को शास्त्रों के माध्यम से आज के मानव तक पहुंचाया है और अपने अपार श्रम से इसके वास्तविक तथ्य को पुरस्कृत करने का आर्ष पुरुषार्थ किया है। . श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन को बोध देते हुए मानव की ईश्वर अथवा ईश्वरीय-सत्ता-सम्पन्न वस्तुओं के प्रति अभिरुचि के प्रमुख कारण बताते हुए कहा कि
चतुविधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन !
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ! ॥७-१६॥ अर्थात भरतवंशियों में श्रेष्ठ हे अर्जुन, (१) आर्त-संकट में पड़ा हुआ, (२) जिज्ञासु-यथार्थ ज्ञान का इच्छक, (३) अर्थार्थी-सांसारिक सुखों का अभिलाषी, तथा (४) ज्ञानी-ऐसे चार प्रकार के लोग मेरा स्मरण करते हैं। यह कथन सभी के सम्बन्ध में लागू होता है। इन चार कारणों में अन्तिम कारण को छोड़कर शेष तीन तो ऐसे हैं कि इनसे कोई बचा हुआ नहीं है। कुछ केवल पीड़ित हैं, कुछ केवल जिज्ञासु हैं और कुछ केवल अर्थार्थी हैं। जबकि अधिकांश व्यक्ति तीनों कारणों से ग्रस्त हैं। ऐसे लोगों की आवश्यकताएँ कितनी अधिक होती हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। ये आवश्यकताएँ मूलतः कष्टों से छुटकारा पाने, ज्ञातव्य को जानकर जिज्ञासा को शान्त करने तथा सांसारिक सुखों को प्राप्त करने के लिए निरन्तर बढ़ती रहती हैं । अतः आचार्यों ने इनकी पूर्ति के लिए भी अनेक मार्ग बताये हैं, जिनमें "तन्त्र-साधना" भी एक है । तन्त्र-शक्ति से प्राचीन आचार्यों ने अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त की थीं और अन्य साधनाओं की अपेक्षा तन्त्र-साधना को सुलभ तथा सरल रूप में प्रस्तुत कर हमारे लिये वरदानरूप ही सिद्ध किया था। यही कारण है कि सुपठित, अल्पपठित और अपठित, शहरी तथा ग्रामीण, पुरुष एवं स्त्री सभी तन्त्र द्वारा अपनी-अपनी आवश्यकता की पूर्ति का प्रयत्न करते हैं और पूर्ण सफलता प्राप्त कर लेते हैं। इसीलिए तन्त्र को सभी आवश्यकताओं का पूरक माना जाता है।
जब हम दुःखों से मुक्त होते हैं, तो हमारी आकांक्षाएं कुलाचें भरने लगती हैं, इच्छाएं सीमाएँ लांधकर असीम बनती जाती हैं साथ ही हम यह भी चाहते हैं कि इन सबकी पूर्ति में अधिक श्रम न उठाना पड़े। ठीक भी है, कौन ऐसा व्यक्ति होगा जो घोर परिश्रम से साध्य क्रिया की अपेक्षा सरलता से साध्य क्रिया की ओर प्रवृत्त न हो? तन्त्र वस्तुतः एक ऐसी ही शक्ति है, जिसमें न अधिक कठिनाई है और न अधिक श्रम । थोड़ी-सी विधि और थोड़े से प्रयास से सिद्धि प्राप्त हो सकती है तो तन्त्र से ही।
अत: आवश्यकता और आकांक्षा की सिद्धि के लिए तन्त्र-शक्ति का सहारा ही एक सर्वसुलभ साधन है। तन्त्रः शब्दार्थ और परिभाषा
'तन्त्र' शब्द के अर्थ बहुत विस्तृत हैं, उनमें से सिद्धान्त, शासन-प्रबन्ध, व्यवहार, नियम, वेद की एक शाखा, शिव-शक्ति आदि की पूजा और अभिचार आदि का विधान करने वाला शास्त्र, आगम, कर्मकाण्ड-पद्धति और
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