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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
जिसप्रकार स्त्री व पुरुष से पुत्र की उत्पत्ति होती है । उसीप्रकार जीव व द्रव्यकर्मोदय से रागादिभावों की उत्पत्ति होती है । विवक्षावश से पुत्र कभी स्त्री का कहा जाता और कभी पुरुष का । नाना के घर पुत्र स्त्री का कहलाता है और पितामह ( बाबा ) के घर पुरुष का कहलाता है । विवक्षावश रागादि कभी जीव के कहे जाते हैं और कभी पुद्गलकर्म के । एकान्त से न जीव के हैं और न पुद्गलकर्म के । ( समयसार गाथा १०९-११२ तात्पर्यवृत्ति टीका ) समयसार गाथा ८९-९० में रागादि का कर्ता जीव को कहा है, किन्तु पंचास्तिकाय गाथा ५८ में रागादिभावों का कर्ता कर्म को कहा है ।
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निमित्त-नैमित्तिकसंबंध तो भिन्न द्रव्यों की पर्याय में होता है अथवा भिन्न गुणों में होता है । किन्तु कर्ता कर्म सम्बन्ध उपादान की अपेक्षा से एक ही द्रव्य व उसकी पर्याय में होता है और निमित्त की अपेक्षा से कर्त्ताकर्मसंबंध भिन्न द्रव्यों को पर्याय में होता है ।
जिससमय निगोदियाजीव के आयु का बंध होता है यदि उससमय काललब्धिवश व अपने अबुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ द्वारा व मंदकर्मोदय के कारण उसके मंदकषाय होय तो उसके निगोदिया आयु का बंध नहीं होता, किन्तु अन्य आयु का बंध होता है । भुज्यमान निगोद आयु के पूर्ण होने पर बध्यमान नवीन आयु का उदय होने से वह जीव निगोद से निकल जाता है । अबुद्धिपूर्वक पुरुषार्थं व कर्मोदय दोनों कारण होते हैं। एक कार्य अनेक कारणों से होता है । उन सब कारणों के मिलने पर ही कार्य की उत्पत्ति होती है । विवक्षावश यदि कहीं एक कारण की मुख्यता से कथन हो वहाँ अन्य कारणों के अभाव से प्रयोजन नहीं है, किन्तु श्रन्य कारण भी गौणरूप से हैं । कोई भी कारण अकिचित्कर नहीं । कार्य की उत्पत्ति में सभी कारण अपना सहकार देते हैं ।
- जै. सं. 2-1-58 / VI / लालचन्द नाहटा
१. जीव अपनी भूल से अज्ञानी बनता है, कर्म पर तो श्रारोपमात्र श्राता है; ऐसी मान्यता श्रागम प्रतिकूल है ।
२. बिना किसी दूसरे के सम्बन्ध के, एक द्रव्य में अशुद्धता नहीं श्रा सकती
शंका - व्यवहार कहता है कि ज्ञानावरणीयकर्म ने ज्ञान को रोक रखा है । निश्चयनय कहता है कि जब जीव अपनी भूल से अज्ञानी बनता है तब ज्ञानावरणीयकर्म को निमित्त का आरोप किया जाता है । कानजी स्वामी के इस कथन को सत्यार्थ क्यों नहीं मानते ? व्यवहारनय के कथन को पूर्णरूप से वस्तु का स्वरूप क्यों समझते हो ?
समाधान - यहाँ पर सर्वप्रथम यह विचारना है कि व्यवहारतय का क्या विषय है और निश्चयनय का क्या विषय है ? प्रागम के आधार से विचार किया जाता है । पदार्थ का यथार्थ निर्णय श्रागमचक्षु द्वारा हो सकता है
आगमचक्खू साहू इंवियचक्कूणि सम्यभूदाणि ।
देवाय ओहिचक्खू, सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू ॥ २३४ ॥ प्रवचनसार
अर्थ-साधु (मुमुक्षु) के आगमचक्षु है । सर्वप्राणी इन्द्रियचक्षु वाले हैं । देव अवधिचक्षु वाले हैं और सिद्धों के सर्वतः चक्षु हैं ।
श्री अमृतचन्द्रसूरिजी टीका में लिखते हैं- सर्वमप्यागमचक्षुषैव मुमुक्षुणां द्रष्टव्यम् मुमुक्षुनों को सब कुछ आगमचक्षु द्वारा देखना चाहिए ।
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