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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार
समयसार गाथा २५७-२५८ तथा आत्मख्याति टीका में भी कहा है 'जो मरता है या जीता है दुःखी होता है या सुखी होता है, यह वास्तव में अपने कर्मोदय से ही होता है, क्योंकि अपने कर्मोदय के अभाव में उसका वैसा होना अशक्य है ।' समयसार गाथा १९९ में भी कहा है 'राग पुद्गल कर्म है उसके विपाकरूप उदय से यह राग है । टीका - वास्तव में राग नामक पुद्गलकर्म है, उसके उदय विपाक से उत्पन्न हुआ रागरूप भाव है ।
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संयोग से उत्पन्न यह
समयसार गाथा १०९-११६ तात्पर्यवृत्ति टीका में यह बतलाया है कि रागादि की उत्पत्ति वास्तव में जीव और पुद्गल से होती है । टीका अर्थ इस प्रकार है - जैसे स्त्री और पुरुष दोनों के सम्बन्ध से उत्पन्न हुआ पुत्र है । उसको उसकी माता की अपेक्षा से देवदत्ता का यह पुत्र है ऐसा कोई कहते हैं दूसरे कोई पिता की अपेक्षा से देवदत्त का पुत्र है ऐसा कहते हैं । परन्तु इस कथन में कोई दोष नहीं तैसे ही जीव और पुद्गल के मिथ्यात्व व रागद्वेषादि भाव हैं सो अशुद्धनिश्चय व अशुद्धउपादान से तो चेतन हैं तथा शुद्ध निश्चयनय से व शुद्ध उपादानरूप से ये भाव अचेतन हैं, पौद्गलिक हैं । परमार्थं से विचारा जाय तो ये भाव एकान्त से न तो जीव रूप हैं न पुद्गलरूप हैं, परन्तु जैसे हलदी और फिटकरी के संयोग से एक जुदा परिणाम उपजता है ऐसे ही जीव और पुद्गल के संयोग से विभावभाव हैं । इस कथन से यह कहा गया है कि जो कोई एकान्त से ऐसा कहते हैं कि यह रागादिभाव जीवसम्बन्धी हैं अथवा कोई कहते हैं कि यह पुद्गलसम्बन्धी हैं इन दोनों के भी वचन मिथ्या हैं, क्योंकि पूर्व में कहे हुए स्त्री और पुरुष के दृष्टान्त के समान जीव और पुद्गल के संयोग से उत्पन्न हुए हैं।
समयसार गाथा १२१ - १२५ की तात्पर्यवृत्ति में भी इसप्रकार कहा है- 'यदि एकान्त से ऐसा माना जाय कि जीव स्वयं परिणमन करता हुआ उदय में प्राप्त द्रव्यक्रोध के निमित्त के बिना भी, भाव क्रोधादिरूप परिणमन कर जावे, क्योंकि वस्तु की शक्तियाँ दूसरे की अपेक्षा नहीं रखतीं तो ऐसा होने पर मुक्तात्मा के भी द्रव्यकर्मोदय का निमित्त न होने पर भी, भावक्रोधादिरूप प्राप्त हो जायेंगे । यह बात मानी नहीं जा सकती, आगम से विरोधरूप है ।
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उपर्युक्त आगम प्रमाणों से यह भलीभाँति सिद्ध होता है कि ज्ञान का आवरण व रागादिभाव मात्र जीव की योग्यता से ही उत्पन्न नहीं होते, किन्तु जीव में द्रव्यकर्मोदय से उत्पन्न होते हैं । इन विकारोभावों की उत्पत्ति में जीव व द्रव्यकर्मोदय दोनों ही कारण हैं । जैसे पुत्र की उत्पत्ति में माता व पिता दोनों कारण हैं। केवल एक पुत्र की उत्पत्ति नहीं हो सकती, किन्तु जीव व द्रव्यकर्मोदय दोनों उपादानकारण नहीं हैं । भाव क्रोधादि का उपादानकारण तो जीव है और पुद्गलकर्मोदय निमित्तकारण हैं। बिना निमित्त के भाव क्रोधादि की उत्पत्ति नहीं हो सकती । यदि बिना निमित्त के भी भावक्रोधादि की उत्पत्ति होने लगे तो सिद्ध के भी भावक्रोधादि की उत्पत्ति का प्रसंग आ जावेगा, जो इष्ट नहीं है । ऐसा भी नहीं है कि द्रव्यकर्मरूप घातियाप्रकृति का तो उदय हो और उसके अनुरूप जीव के भाव न हों, क्योंकि ऐसा मानने पर ध्यानारूढ़ क्षपकश्रेणीगत सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती जीव में सूक्ष्मलोभ का उदय होने पर भी सूक्ष्मलोभकषायरूप भाव के अभाव का प्रसंग आ जाएगा जो आगमविरुद्ध है | अतः द्रव्यकर्मोदय वास्तव में निमित्त है और ज्ञान का आवरण करना तथा अन्य औदयिकभावों को उत्पन्न करना इसका कार्य है । यह कथन द्रव्यार्थिकनय ( निश्चयनय ) से है । द्रव्यकर्मोदय पर निमित्त का आरोप किया जाता है, ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि द्रव्यकर्मोदय वास्तविक निमित्त है ।
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-. सं. 5-12-57 / VI / ब. प्र. स., पटना
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