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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
में भी औपाधिकभावों को व्यवहारनय से जीव के कहा गया है। निश्चयनय से ये औपाधिकभाव पुद्गलमयी हैं, क्योंकि पुद्गलद्रव्य के परिणाम से उत्पन्न हुए हैं । ( स० सा० गाथा ४४ ) गाथा ४५ की टीका में श्री जयसेनाचार्य ने लिखा है कि- 'आठ प्रकार पुद्गलमयी द्रव्यकर्म का कार्य दुःख उत्पन्न करना है जिसका लक्षण आकुलतारूप है तथा जो परमार्थं निश्चय आत्मिकसुख से विलक्षण है और जो आकुलता को भी उत्पन्न करता है । क्योंकि रागद्वेषादि भी आकुलता के उत्पन्न करनेवाले हैं इससे दुःखलक्षण स्वरूप हैं, इस कारण पुद्गल के कार्य हैं तिस कारण शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा यह रागादिक पुद्गलमयी हैं।' इसी प्रकार समयसार गाथा ५०-६८ में 'प्रज्ञान
रागद्वेषादि' को निश्चयनय से पुद्गल के धौर व्यवहारनय से जीत्र के कहे हैं। गाथा ७४ की टीका में श्री जयसेनाचार्य ने कहा है 'यद्यपि यह जीव शुद्ध निश्चय करके अपने स्वरूप को नहीं छोड़ता तथापि व्यवहार करके कर्मों के वश से रागद्वेष उपाधिमयी भावों को ग्रहण करता है ।' गाथा ७५ की टीका में श्रीमदमृतचन्द्रसूरि ने 'निश्चय से रागद्वेष का पुद्गल कर्म के साथ घड़े मिट्टी की तरह, व्याप्यव्यापक का सद्भाव होने से कर्ताकम्पना' कहा है । इस गाथा ७५ के पश्चात् तात्पर्यवृत्ति में गाथा इसप्रकार है
कत्ता आदा भणिदो, णय कत्ता केण सो उवाएन । धम्मादी परिणामे जो जाणदि सो हवदि णाणी ॥
'आत्मा पुण्य-पाप श्रादि कर्मों से होने वाले औपाधिकभावों का करनेवाला व्यवहारनय से कहा गया है, परन्तु सो आत्मा किसी भी उपाय से निश्चयनय की अपेक्षा इन रागादि भावों का कर्ता नहीं है । जो कोई इनका स्वरूप जानता है सो ज्ञानी होता है।' इसी प्रकार गाथा १९९ व ११५ की टीका में भी कहा है । अन्यत्र भी ऐसा कथन पाया जाता है ।
क्वचित् समयसार में निश्चयनय से भी जीव को रागादि का कर्ता कहा है । गाथा १०२, ११५, १३८ की तात्पर्यवृत्ति टीका यह कहा है कि अद्भूतव्यवहारनय की अपेक्षा से इसको 'निश्चय' संज्ञा दी गई है, शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा तो व्यवहार ही है । 'यह संसारी जीव धनुपचरित श्रसद्भूतव्यवहारनय से ज्ञानावरणीय श्रादि द्रव्यकर्म का कर्ता है तथा अशुद्धनिश्चयनय से रागादिभावों का कर्ता है । यद्यपि द्रव्यकर्मों के कर्तापने को कहते हुए जब अनुपचरित असद्भूतव्यवहारनय का प्रयोग करते हैं तब इस अपेक्षा से अशुद्ध निश्चयनय को निश्चय संज्ञा देते हैं तो भी शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से इस अशुद्धनिश्चय को व्यवहार ही कहते हैं ।' समयसार गाथा १३८ तात्पर्य वृत्ति । 'यहाँ शिष्य ने शंका की कि यह जीव शुद्धनिश्चय से अकर्ता है जबकि व्यवहार से कर्ता है । यह बात आपने बहुत प्रकार से वर्णन की है । परन्तु ऐसा मानने पर जैसे जीव के व्यवहारनय से द्रव्यकमों का कर्तापन है वैसे रागद्वेषादि भावकर्मों का भी है । तब ये द्रव्यकर्म और भावकर्म दोनों एक हो जायेंगे। इसका समाधान आचार्य करते हैं कि ऐसा नहीं है । रागद्वेषादि भावकर्मों का कर्तापना इस आत्मा के जिस व्यवहारनय से कहा जाता है उसकी संज्ञा अशुद्ध निश्चयनय है । यह संज्ञा इसलिए है कि जिससे रागादि भावकर्म और ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म इन दोनों का तारतम्य मालूम पड़े। वह तारतम्य क्या है ? इसके लिये कहते हैं कि द्रव्यकमं तो अचेतन जड़ हैं जबकि भावकर्म चेतन हैं, तथापि शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा इनको अचेतन ही कहते हैं, क्योंकि यह प्रशुद्ध निश्चयनय भी शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा व्यवहार है । समयसार गाथा ११५ तात्पर्यवृत्ति ।
अशुद्ध निश्चयनय का लक्षण इसप्रकार है- 'कर्मउपाधि से उत्पन्न होने से 'अशुद्ध' कहलाता है और उससमय अग्नि में तपे हुए लोहे के गोले के समान तन्मय होने से 'निश्चय' कहा जाता है ।'
( वृहद् द्रव्यसंग्रह गाथा ८ की टीका )
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