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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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अंश भी मयूरप्रतिबिम्ब में नहीं गया, किन्तु प्रतिबिम्ब का परिणमन मयूर की प्राकृति के आधीन है। यदि मयूर एक टांग उठाता है तो प्रतिबिम्ब में भी उसी समय एक टांग उठ जाती है। यदि मयूर नाचता है तो प्रतिबिम्ब में भी मयूर नाचने लगता है। यदि दर्पण के सामने से मयूर का अभाव हो जाता है तो मयूरप्रतिबिम्ब का भी अभाव हो जाता है । दर्पण वर्गाकार हो या गोल हो, दर्पण की प्राकृति के कारण मयूर प्रतिबिम्ब में कोई अन्तर नहीं पड़ता, किन्तु मयूर की आकृति में अन्तर पड़ने से तुरन्त मयूर प्रतिबिम्ब की प्राकृति में अन्तर पड़ जाता है। यद्यपि प्रतिबिम्ब का उपादानकारण दर्पण है, किन्तु प्रतिबिम्ब दर्पण के आकार के आधीन न होकर मयूर के आकार के आधीन है, प्रतिबिम्ब दर्पण की विभावपर्याय है।
__ इसीप्रकार रागादि जीव की विकारीपर्याय हैं, इनमें द्रव्य कर्म का एक परमाणु भी नहीं है फिर भी जिसजिसप्रकार का द्रव्यकर्मोदय होता है उस प्रकार जीव अपने परिणमन स्वभाव के कारण परिणम जाता है। यदि क्रोधदव्यकर्म का उदय है तो जीव में क्रोधरूप परिणाम अवश्य होंगे, मान, माया या लोभरूप नहीं हो सकते। यदि तीव्र अनुभाग को लिये हुए क्रोधद्रव्यकर्मोदय है तो जीव में तीव्रक्रोधरूप परिणाम होंगे, मंदक्रोधरूप नहीं हो सकते। ऐसा भी नहीं है कि क्रोधद्रव्यकर्म का उदय हो और जीव में क्रोध न हो, क्योंकि 'उदय' का अर्थ ही फल देना है ( पं० का० गाथा ५६ टीका ) अथवा कर्मस्वरूप से या पररूप से फल बिना दिये अकर्मभाव (निर्जरा ) को प्राप्त नहीं होता ( जयधवल पु. ३ पृ० २४५ )। यदि द्रव्यकर्मोदय होनेपर भी जीव के तद्रूप परिणाम न हों तो अप्रत्याख्यान व प्रत्याख्यानकषाय के उदय में जीव के संयमभाव का तथा बादरकषाय के उदय में सूक्ष्मसाम्परायसंयमभाव का प्रसंग आ जायगा, जो आगमविरुद्ध है । जिसप्रकार दर्पण की मयूरबिम्बरूप विकारीपर्याय मयूर के आधीन है उसीप्रकार जीव की रागादि विकारीपर्याय कर्मोदय के आधीन है इसीलिये पंचास्तिकाय गाथा ५७ में जीव के प्रौदयिकभावों का द्रव्य कर्म हेतुकर्ता कहा गया है।
रागादि के साथ प्रात्मा का उपादान कारण होने से, तादात्म्य संबंध है और द्रव्यकर्म के साथ रागादि का हेतुकर्ता होने से निमित्तनैमित्तिकसम्बन्ध है।
-जं. सं. 20-3-58/VI/ कपूरीदेवी
संसारावस्था में जीव को शुद्ध द्रव्यपर्याय सम्भव नहीं है शंका-क्या आत्मा संसारावस्था में शुद्ध-अशुद्धरूप परिणमन कर सकती है ? यदि शुद्धरूप परिणमन कर सकती है तो फिर उसका अशुद्ध परिणमन क्यों होता है ?
समाधान-जबतक संसारावस्था है तबतक यह जीव मनुष्य, नरक, तिर्यंच, देव इन चार गतियों में से किसी न किसी गति में अवश्य होगा, क्योंकि इन चार गतियों से रहित सिद्ध भगवान होते हैं। मनुष्य, नरक, तियंच, देव में जीव की अशुद्धपर्यायें हैं, क्योंकि कर्मोपाधिजनित हैं। कर्मोपाधि से रहित तो सिद्धपर्याय है जो जीव को शुद्धपर्याय है।
णरणारयतिरियसूरा पज्जाया ते विभावमिवि भणिवा । कम्मोपाधि विवज्जिय ते पज्जाया सहावमिदि भणिवा ॥१॥
अर्थ-श्री जिनेन्द्र भगवान ने मनुष्य, नारक, तिर्यंच और देव पर्यायों को जीव की विभाव पर्यायें कहा है। और कर्मोपाधि से रहित पर्याय ( सिद्ध पर्याय ) को जीव की स्वभाव पर्याय कहा है।
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