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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ६३३ "शङ्काकाङ्क्षा विचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतिचाराः।" ॥७॥२३॥ तत्वार्थ सूत्र
"निःशङ्कितत्वादयो व्याख्याता दर्शन विशुद्धिरित्यत्र । तत्प्रतिपक्षेशङ्कादयो वेदितव्याः। स्यान्मतं सम्या. दर्शनमष्टाङ्ग निःशंकितत्वादि लक्षणमुक्तम् । तस्याऽतिचारैरपि तावद्भिरेव भवितव्यमित्यष्टावतिचारा निर्देष्टव्या इति । तत्रवान्तर्भावात् ।
___ सम्यग्दर्शन के शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा, अन्यदृष्टिसंस्तवन ये पांच प्रतिचार हैं। सम्यग्दर्शन के निःशंकितादि आठ अंग कहे थे, उनके प्रतिपक्षभूत शंका आदि सम्यग्दर्शन के अतिचार हैं । सम्यग्दर्शन के पाठ अंग हैं, अतः उनके प्रतिपक्षभूत आठ अतिचार होते हैं जिनका अन्तर्भाव इन पाँच अतिचारों में हो जाता है। आठ अंगों में से किसी अंग की हीनता व सम्यग्दर्शन का अतिचार है और जो सम्यग्दर्शन अतिचारसहित है वह सम्यग्दर्शन अंगहीन सम्यग्दर्शन कहलाता है।
-जें. ग. 23-3-78/VII/ र. ला. जैन, एम. कॉम
सम्यग्दर्शन के २५ दोष शंका-सम्यग्दर्शन के २५ वोषों का वर्णन किस आर्ष ग्रंथ में है ? छहढाला में छह अनाय-तन और तीन मूढता का कथन है, वे कौन सी हैं ?
समाधान-चारित्रप्राभृत गाथा ५ की टीका में श्री श्रुतसागरसूरि ने सम्यग्दर्शन के २५ दोषों का कथन करने के लिए निम्न श्लोक उद्धृत किया है
मूढत्रयं मवाश्चाष्टौ तथानायतनानि षट् ।
अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषाः पञ्चविंशतिः ॥ तीन मूढता, आठ मद, छह अनायतन और शङ्का आदि आठ दोष ये सम्यग्दर्शन के पच्चीस दोष हैं । ___ यह श्लोक स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा गाथा ३२६ को टीका में तथा ज्ञानार्णव व प्रात्मानुशासन में भी उद्धृत हुआ है । लोक मूढता, देवमूढता और गुरुमूढता का स्वरूप इस प्रकार है
आपगासागरस्नानमुच्चयः सिकताश्मनाम् । गिरिपातोऽग्निपातश्च लोकमूढं निगद्यते ॥२२॥ वरोपलिप्सयाशावान रागद्वेषमलीमसाः। देवता यदुपासीत देवतामूढमुच्यते ॥२३॥ सग्रन्थारम्भहिंसानं संसारावर्तवतिनाम् ।
पाषण्डिनो पुरस्कारो शेयं पाषण्डिमोहनम् ॥२४॥ रत्नकरण्ड श्रावकाचार अर्थ-धर्म समझकर गंगा आदि नदियों तथा समुद्र में नहाना, बालू और पत्थरों का ढेर करना, पहाड़ से गिरना और अग्नि में जलना प्रादि काम करना लोकमूढता कही जाती है ॥२२॥ धन आदि चाहने वाला मनुष्य वर पाने की इच्छा से जो राग द्वेष से मलिन देवताओं को पूजता है वह देवमूढता है ।।२३।। परिग्रह प्रारम्भ और हिंसा सहित संसार रूप भंवर में रहने वाले पाखण्डी साधुओं का आदर सत्कार करना गुरु मूढता है ।
ज्ञानं पूजां कुलं जाति बलमृद्धि तपो वपुः। अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमार्गतस्मयः ॥२५॥ (र.क.)
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