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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १५०१ शंका-समयसार 'पुण्य 'पाप' अधिकार में पुण्य' को कुशील सुवर्ण की बेड़ी आदि कहा है । फिर 'पुण्य' को धर्म कैसे कहते हो?
समाधान—यह सत्य है कि समयसार में 'पुण्य' को कुशील आदि नामों से पुकारा है, किंतु यह विचार करो कि कौनसे पुण्य को और क्यों कुशील कहा है ?
प्रति शंका-सब ही पुण्य को कुशील कहा, क्योंकि, वह संसार का कारण है।
समाधान-पुण्य संसार का कारण नहीं है। यदि पुण्य संसार का कारण होता तो अकषायी जीवों के एक समय की स्थिति वाला पुण्य क्यों बंधता और क्षपक श्रेणी वाले सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान के अन्तिम समय में सबसे अधिक अनुभाग वाला पुण्य क्यों बंधता । शुद्धोपयोग से, जैसे पाप के अनुभाग का घात होता है, वैसे ही पुण्य के अनुभाग का घात होना चाहिये था, किन्तु पुष्य के अनुभाग का घात होता नहीं है । अतः पुण्य संसार का कारण नहीं है।
शंका-संसार का क्या कारण है ? समाधान-संसार का कारण मिथ्यात्व है, जो महान् पाप है।
शंका-फिर पुण्य को कुशील व बेड़ी क्यों कहा है ?
समाधान-जो पुण्य मिथ्यात्व की संगति कर लेता है अर्थात् मिथ्यादृष्टि के पुण्य को कुशील व बेड़ी कहा है । जिसप्रकार भद्र पुरुष भी चोरों की संगति के कारण चोर माना जाता है ।
शंका-समयसार में तो सामान्य पुण्य को कुशील कहा है।
समाधान-समयसार, पुण्य-पाप अधिकार गाथा १५२-१५४ व १५६ से स्पष्ट है कि वहाँ पर मिथ्यादृष्टि के पण्य से प्रयोजन है। पुण्य उदय से मिलनेवाली सामग्री का भोग सम्यग्दृष्टि के निर्जरा का कारण है ( समयसार गाथा १९३ ) फिर सम्यग्दृष्टि का पुण्य कैसे कुशील व बेड़ी हो सकता है।
शंका-क्या मिथ्यादृष्टि का पुण्य सर्वथा संसार का ही कारण है ?
समाधान -मिथ्यादृष्टि का पुण्य सर्वथा संसार का ही कारण है, किसी अपेक्षा मोक्षमार्ग में लगने में सहायक भी है। जैसे "पुण्य उदय ते सुगति विष जाय है, वहाँ धर्म के निमित्त पाईए हैं। देवगति में उपजे । नन्दीश्वरद्वीप में अकृत्रिम जिनबिम्ब की पूजा का अवसर पाय है, जिनके अवलोकन से सम्यक्त्व होय जाय है। साक्षात् केवली की दिव्यध्वनि सुने है । पाप तैं छूट पुण्य विर्षे लागे है। कषाय मंद होय है कषाय की मंदता से कर्म शक्तिहीन हो जाय तो मोक्षमार्ग को भी प्राप्त होय जाय । किन्तु ऐसा नियम नहीं है।" ऐसा 40 टोडरमलजी का अभिप्राय है।
शंका- यदि सम्यग्दृष्टि का 'पुण्य' 'धर्म' है तो वह पुण्य की वांछा क्यों नहीं करता ?
समाधान-पुण्य की बात तो दूर रही, सम्यग्दृष्टि मोक्ष की भी इच्छा नहीं करता, क्योंकि 'इच्छा' 'परिग्रह' है अज्ञानमयभाव है। सम्यग्दृष्टि के तो ज्ञानभाव है। इसलिये अज्ञानमय भाव इच्छा का सम्यग्दृष्टि के अभाव है। ( समयसार गाथा २१०)
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