________________
ध्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ६२७
"द्रव्यदृष्टि सो सम्यग्दृष्टि तथा पर्यायदृष्टि सो मिथ्यादृष्टि"; यह मान्यता गलत है शंका- द्रव्यदृष्टि सो सम्यग्दृष्टि, पर्यायदृष्टि सो मिथ्यादृष्टि । क्या यह सिद्धान्त ठोक है ?
समाधान-वास्तव में सभी वस्तु के सामान्य विशेषात्मक होने से वस्तु के स्वरूप को देखनेवाले के क्रमशः सामान्य और विशेष को जाननेवाली दो आँखें (१) द्रव्याथिकनय और (२) पर्यायाथिकनय हैं । इनमें से पर्यायार्थिकचक्षु को सर्वथा बन्द करके, जब मात्र खुली हुई द्रव्याथिकचा के द्वारा देखा जाता है, तब नारकत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्वपर्यायस्वरूप विशेषों में रहने वाले एक जीव सामान्य को देखनेवाले जीव के वह सब जीवद्रव्य है ऐसा भासित होता है। जब, द्रव्याथिकचक्षु को सर्वथा बन्द करके, मात्र खुली हुई पर्यायाथिकचक्षु के द्वारा देखा जाता है उस समय जीव द्रव्य में रहनेवाले नारकत्व, तियंचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्वपर्यायरूप अनेक विशेषों को देखने वाले और सामान्य को न देखने वाले जीवों के अन्य अन्य भासित होते हैं क्योंकि द्रव्य का उन विशेषों के समय-समय में उन-उन विशेषों से तन्मय होने से अनन्यपना है, कण्डे, घास पत्ते और काष्ठमय अग्नि की भाँति । जब उन द्रव्याथिक और पर्यायाथिक दोनों आँखों को एक ही काल में खोलकर देखा जाता है तब नारकत्व, तियंचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्वपर्यायों में रहने वाला जीव सामान्य तथा जीव सामान्य में रहने वाले नारकत्व, तियंचत्व देवत्व और सिद्धत्वपर्यायस्वरूप विशेष एक ही काल में दिखाई देते हैं। दोनों आँखों से देखना अर्थात् सर्वावलोकन में द्रव्य में सामान्य और विशेष विरोध को प्राप्त नहीं होते हैं। प्रवचनसार गा. ११४ टीका
यहाँ पर यह बतलाया गया है कि प्रत्येक द्रव्य सामान्य-विशेषात्मक होता है। द्रव्याथिकनय का विषय सामान्य है और पर्यायायिकनय का विषय विशेष है। जब सामान्य पर दृष्टि होती है उस समय विशेष गौण होता है, किन्तु विशेष का निषेध नहीं होता है। जिस समय विशेष पर दृष्टि होती है उस समय सामान्य गौण होता है, क्योंकि विशेष के बिना सामान्य खरविषाणवत् है और सामान्य के बिना विशेष खरविषाणवत है। आलापपद्धति'
जो मात्र द्रव्याथिकनय को ही मानते हैं वे भी मिथ्याइष्टि हैं और जो मात्र पर्यायाथिकनय को ही मानते हैं वे भी मिथ्यादष्टि हैं । क्योंकि द्रव्याथिकनय से वस्तु नित्य है और पर्यायाथिकनय से वस्तु अनित्य है ।
'द्रव्याथिकनयेन नित्यत्वेऽपि पर्यायरूपेण विनाशोऽस्तीति ।" प्रवचनसार गाथा ११९ टीका ___ द्रव्य को सर्वथा नित्य मानने पर अर्थक्रियाकारित्व का अभाव हो जायगा, जिसके अभाव में वस्तु का भी अभाव हो जायगा। सर्वथा अनित्य मानने पर भी अर्थक्रियाकारित्व का अभाव हो जायगा, जिसके अभाव में द्रव्य का भी प्रभाव हो जायगा । आलापपद्धति
केवली भगवान की वाणी में भी दोनों नयों के आधीन उपदेश होता है, एक नय के आधीन उपदेश नहीं होता है । श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा भी है
"द्वौ हि नयौ भगवता प्रणीतौ द्रव्याथिकः पर्यायाधिकश्च । तत्र न खल्वेकनयायत्ता देशना किन्तु तदुभयायत्ता।" पं० का० गाथा ४ टोका
१ निविशेषं हि सामान्यं भवेत्खरविषाणवत् ।
सामान्यरहितत्वाच्च विशेषस्तद्वदेव हि ॥ २ नित्यस्यैकरूपत्वादेकरूपस्यार्थक्रियाकारित्वाभावः। अर्थक्रियाकारित्वाभावे द्रव्यस्याप्यभावः ॥१२९॥ [ आ० ५० ]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org