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________________ १४८४ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : यहाँ पर श्री वीरसेन आचार्य ने यह स्पष्ट कर दिया है कि सरागसंयम के बिना विशिष्ट पूण्यबन्ध नहीं हो सकता है। और विशिष्ट पुण्योदय के अभाव में मोक्ष भी नहीं हो सकती है। इसीलिये यह कहा गया है कि 'सरागसंयम के परित्याग का प्रसंग प्राप्त होने से मक्तिगमन के अभाव का भी प्रसंग प्राप्त होता है।' इसी बातको श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने 'पुरुषार्थसिद्ध्युपाय' में कहा है - असमन भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धो यः। सविपक्षकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः ॥२११॥ अर्थ-सम्पूर्ण रत्नत्रय के भावने वाले ( धारण करने वाले ) के जो कर्मबन्ध होता है, वह कर्मबन्ध विपक्ष (असम्पूर्णता जघन्यता) कृत है । वह कर्म-बन्धन अवश्य ही मोक्ष का उपाय है, बन्ध का उपाय नहीं है। असमग्र रत्नत्रयवालों के तीर्थंकर आदि कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है। वे तीर्थकर प्रादि कर्म-प्रकृतियां मोक्ष का उपाय है, बन्ध का उपाय नहीं है, जैसा कि 'पंचास्तिकाय गाथा' ८५ की टीका में कहा भी है 'रागादिदोष-रहितः शुद्धात्मानुभूति-सहितो निश्चयधर्मो यद्यपि सिद्धगतेरुपादानकारणं भव्यानां भवति तथापि निदानरहित-परिणामोपाजित-तीर्थकरप्रकृत्युत्तमसहननादिविशिष्ट-पुण्यरूप-धर्मोपि सहकारिकारणं भवति ।' अर्थ-यद्यपि भव्य को रागादि दोष रहित शुद्धात्मानुभूति सहित निश्चय धर्म सिद्ध गति के लिये उपादान कारण है तथापि निदानरहित, परिणामों से उपार्जित, तीर्थकर कर्म प्रकृति, उत्तम संहनन आदि विशिष्ट पुण्य रूप धर्म भी सिद्ध गति के लिए सहकारी कारण होता है। इस आगम प्रमाणसे भी सिद्ध है कि असमग्र रत्नत्रयवालों के जो विशिष्ट पुण्य कर्म, बन्ध होता है- वह मोक्ष का उपाय ( कारण ) है, बन्ध का उपाय (कारण) नहीं है । इसका विशेष कथन प्रकरण संख्या में है। (८) 'समयसार' ग्रन्थकी अपेक्षा पुण्य-पाप विचार शंका--१. श्री 'समयसार' के पुण्य-पाप अधिकार में तथा गाथा १३ की टीका में पुण्य-पाप दोनों को समान कहा है, फिर पुण्य-पाप में भेद क्यों दिखाया जा रहा है ? समाधान-१. आचार्य प्रत्येक ग्रन्थ के प्रारम्भ में यह बतला देते हैं कि इस ग्रन्थ में किसका कथन किया जायगा। यदि उसे दृष्टि में रखकर ग्रन्थ का अध्ययन किया जाय तो ग्रन्थ का यथार्थ अर्थ समझने में कठिनाई नहीं होती। जैसे 'षट्खंडागम' के प्रारम्भ में यह स्पष्ट कर दिया है कि इस ग्रन्थ में भाव-मार्गणा की अपेक्षा कथन है । यदि इसे भूलकर 'षटखंडागम' के कथन को द्रव्य मार्गणाओं में लगाने लगें तो वह 'षटखंडागम' का यथार्थ अर्थ नहीं समझ सकता। इसी प्रकार 'समयसार' की गाथा ५ में श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने यह प्रतिज्ञा की है कि इस ग्रन्थ में एकत्वविभक्त आत्मा का कथन होगा, क्योंकि काम-भोग और बन्ध का कथन सुलभ है किन्तु एकत्व विभक्त आत्मा की कथा सुलभ नहीं है। एकत्वविभक्त प्रात्मा के कथन के साथ बन्ध का कथन करना उचित नहीं है ('समयसार' गाथा ३ व ४) । यदि गाथा ३.४-५ को ध्यान में रखकर 'समयसार' का अध्ययन किया जाय तो 'समयसार' का यथार्थ भाव समझ में आ सकता है, अन्यथा नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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