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समाधान -- मिथ्यादृष्टि के तो अशुभ परिणाम होता है। कहा भी है
'मिथ्यात्वसासादन मिश्र गुणस्थानत्रये तारतम्येनाशुभोपयोगः । ' ( प्रवचनसार गा० ९ टीका )
अर्थ - मिथ्यात्व गुणस्थान, सासादन गुणस्थान और सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान इन तीनों गुणस्थानों में तरतमता से अशुभोपयोग है ।
इससे सिद्ध है कि शुभोपयोग सम्यग्दृष्टि के होता है । सम्यग्दृष्टि के शुभोपयोग से जो प्रतिशय पुण्यबंध होता है वह मोक्ष का कारण है, संसार का कारण नहीं है । कहा भी है
सम्मादिद्विपुष्णं ण होइ संसारकारणं णियमा ।
मोक्खस्स होइ हेउ' जइ वि णियाणं ण सो कुणई ॥ ४०४ ॥
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
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अकणियाणसम्मो पण्णं काऊण णाणचरणट्ठो ।
उप्पज्जइ दिवलोए सुहपरिणामो सुलेसो वि ।।४०५ ॥ ( भावसंग्रह )
अर्थ - सम्यग्दृष्टि के द्वारा किया हुआ पुण्य संसार का कारण कभी नहीं होता, यह नियम है | यदि निदान न किया जाय तो वह पुण्य नियम से मोक्ष का ही कारण होता है । जिस सम्यग्डष्टि के शुभ परिणाम हैं और शुभ लेश्याएँ हैं तथा जो सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को धारण करनेवाला है, ऐसा सम्यग्डष्टि यदि निदान नहीं करता है तो वह मरकर स्वर्गलोक में ही जाता है ।
कि दाणं मे दिष्णो केरिसपत्ताण काय सु भत्तीए ।
जेणाहं कयपुण्णो उप्पण्णो देवलोयम्मि ॥ ४१७ || इय चिततोपसरs ओहोणाणं तु भवसहावेण । जाणइ सो आइवभव विहियं धम्मप्पहावं च ॥४१८ ॥ परवि तमेव धम्म मणसा सद्दहइ सम्मदिट्ठी सो । वंबे जिणवराणं णंदीसर पहुइ सव्वाई ॥। ४१९ ॥ इय बहुकालं सग्गे भोगं भुजंतु विविहरमणीयं । atऊण आउसखर उप्पज्जइ मच्चलोयम्मि ॥४२० ॥ उत्तमकुले महंतो बहुजणणमणीय संपयाउरे । होऊण अहिरूवो बलजोव्वण रिद्धिसंप ष्णो ॥४२१॥ तत्थ वि विविहे भोए णरखेत्तभवे अणोवमे परमे । भुज्जित्ता णिविष्णो संजमयं चेव गिण्हेई ||४२२ ॥ लद्ध जइ चरमतणु चिरकयप कोण सिज्झए णियमा । पाविय केवलणाणं जहखाइयं संजमं सुद्ध ॥४२३॥ तम्हा सम्मादिद्वीप ष्णं मोक्खस्त कारणं हवई । इय णाऊण गित्यो पुष्णं चायरउ जत्तेण ॥४२४॥
अर्थ- देव विचारता है कि मैंने पूर्व भव में किस पात्रको और कैसी भक्ति के साथ दान दिया था, जिसके पुण्य-उपार्जन से देवलोक में उत्पन्न हुआ हूँ इस प्रकार चिन्तवन करके वह देव भवप्रत्यय अवधिज्ञान से पूर्व भव
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