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________________ १४८० ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : जैसे माता-पिता दोनों के संयोग से पुत्र की उत्पत्ति होती है । किन्तु विवक्षा-वश कोई उस पुत्र को पिता का कहता है और कोई उसको माता का कहता है। श्री 'समयसार' की टीका में कहा भी है । 'एते मिथ्यात्वादिभावप्रत्ययाः शुद्ध निश्चयेनाचेतनाः खलु स्फुटं । कस्मात् ? पुद्गलकर्मोदय संभवा यस्मादिति । यथा स्त्रीपुरुषाभ्यां समुत्पन्नः पुत्रो विवक्षावशेन देवदत्ताया: पुत्रोऽयं केचन वदन्ति वेवदत्तस्य पुत्रोऽयमिति केचन वदन्ति इति दोषो नास्ति । तथा जीवपुद्गलसंयोगेनोत्पन्नाः मिथ्यात्वरागादिभावप्रत्यया अशुद्ध निश्चयेनाशुद्धोपादानरूपेण चेतना जीवसंबद्धाः शुद्ध निश्चयेन शुद्धोपादानरूपेणाचेतनाः पौद्गलिकाः । परमार्थतः पुनरेकांतेन न जीवरूपाः न च पुद्गलरूपाः शुद्धाहरिद्रयोः संयोगपरिणामवत्, ये केचन वदन्त्येकांतेन रागादयो जीवसम्बन्धिनः पुद्गलसम्बन्धिनो वा तदुभयमपि वचनं मिथ्या । कस्मादिति चेत् पूर्वोक्तस्त्रीपुरुषदृष्टान्तेन संयोगोद्भवत्वात् ॥' ( समयसार गा. १११ की टीका ) यहाँ पर पुत्र का दृष्टान्त देकर यह बतलाया है कि 'जिस प्रकार से स्त्री तथा पुरुष दोनों के संयोग से उत्पन्न हुए एक ही पुत्र को विवक्षा के वश से कोई तो उस पुत्र को देवदत्ता - माता का कहता है और कोई देवदत्त पिता का कह देता है । इसमें कोई दोष नहीं है । उसी प्रकार जीव और पुद्गल के संयोग से उत्पन्न हुए मिथ्यात्वरागादि भाव अशुद्ध निश्चय नय से चेतन रूप हैं, जीव के हैं, और शुद्ध निश्चय नय से प्रचेतन हैं, पौद्गलिक हैं । एकान्त से न जीवरूप हैं और न पुद्गल रूप हैं, जैसे चूना और हल्दी के संयोग से रक्त वर्ण उत्पन्न हो जाता है । जो इन मिथ्यात्व - रागादि को जीवरूप ही हैं या पुद्गल ही हैं, ऐसा एकान्त से कहते हैं, उनके वचन मिथ्या ( झूठे ) हैं, क्योंकि स्त्री-पुरुष के दृष्टान्त के समान इन रागादि की उत्पत्ति जीव और पुद्गल दोनों के संयोग हुई है। इसी प्रकार सम्यक्त्व आदि और रागादि के संयोग से तीर्थंकर आदि कर्मों का बन्ध होता है । विवक्षावश कहीं पर सम्यक्त्व आदि से तीर्थंकर आदि कर्मों का बन्ध कहा गया है और कहीं पर रागादि से तीर्थंकर श्रादि IT बन्ध कहा गया है, नय-ज्ञाताओं के लिए इसमें कोई दोष नहीं है । एकान्त से तीर्थंकर श्रादि कर्मों का बन्धन मात्र सम्यक्त्व आदि से होता है और न मात्र रागादि से होता है । श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने स्वयं 'पुरुषार्थसिद्धय पाय' में कहा भी है सम्यक्त्वचरित्राभ्यां तीर्थंकराहारकर्मणो बन्धः । योsयुपदिष्टः समये न नयविदां सोऽपि दोषाय ॥ २१७॥ अर्थ – सम्यक्त्व और चारित्र से तीर्थंकर और आहार शरीर का बन्ध होता है, ऐसा जो श्रागम में उपदेश दिया गया है, वह नय के जानने वालों को दोष के लिए नहीं है अर्थात् नय के जाननेवालों को उसमें कोई शंका उत्पन्न नहीं होती है । सति सम्यक्त्वचरित्रे तीर्थकराहा रबन्धकौ भवतः । योगsarat तस्मात्पुनरस्मिन्नुदासीनम् ॥ १२८ ॥ अर्थ -- सम्यक्त्व और चारित्र के होने पर ही योग और कषाय तीर्थंकर व प्राहारक का बन्ध करते हैं, किन्तु सम्यक्त्व व चारित्र न होने पर योग और कषाय तीर्थंकर व आहार का बन्ध नहीं कर सकते । इसलिए सम्यक्त्व व चारित्र इसमें उदासीन हैं प्रेरक नहीं हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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