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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १४४७
अनुप्रवृत्ति, सामान्य और द्रव्य में तीनों शब्द एकार्थवाची हैं। जो नय द्रव्य को विषय करता है वह द्रव्याथिकनय अर्थात् द्रव्यदृष्टि है । व्यावृत्ति, विशेष और पर्याय ये तीनों शब्द एकार्थवाची हैं। जो नय पर्याय को विषय करता है वह पर्यायाथिकनय अर्थात् पर्यायदृष्टि है ।
द्रव्यदष्टि में पर्यायें गौरण होने से जीव न संसारी है और न मुक्त है, क्योंकि संसारी और मुक्त ये दोनों पर्यायें हैं । अतः द्रव्यदृष्टि में मोक्ष और मोक्षमार्ग ये दोनों पर्याय होना सम्भव नहीं है। इसीप्रकार श्रद्धागुण की मिथ्यादर्शन व सम्यग्दर्शन ये दोनों पर्यायें हैं । समयसार की तात्पर्यवृत्ति टीका में कहा भी है
'शुद्धद्रव्याथिकनयेन शुभाशुभपरिणमनाभावान्न भवत्यप्रमत्तः प्रमत्तश्च । प्रमत्तशब्देन मिथ्यादृष्ट्यादि प्रमत्तांतानि षड़गुणस्थानानि, अप्रमत्तशब्देन पुनरप्रमत्ताद्ययोग्यांतान्यष्ट गुणस्थानानि गृह्यते।'
--समयसार पृ० ७ अजमेर से प्रकाशित शुद्धद्रव्याथिकनय से जीव में शुभ या अशुभरूप परिणमन करने का अभाव है, इसलिये जीव न तो प्रमत्त ही है और न अप्रमत्त ही है। मिथ्याष्टिगुणस्थान से लेकर प्रमत्तविरतगुणस्थान तक इन छह गुणस्थानों में जीव की जो अवस्था है वह प्रमत्त अवस्था है। अप्रमत्तविरत गुणस्थान से लेकर प्रयोगकेवली गुणस्थानतक इन आठ गुणस्थानों में जीव की जो पर्यायें हैं वे अप्रमत्तावस्था हैं। इसप्रकार द्रव्यदृष्टि में न बंधमार्ग है और न मोक्षमार्ग है। यह पर्यायदृष्टि में ही सम्भव है, जैसा कहा भी है
पाडुब्भवदि य अण्णो पज्जाओ पज्जओ वयदि अण्णो।
दव्वस्स तं पि दम्यं व पण8 ण उप्पण्णं (प्र. सा. २०११) 'प्रादुर्भवति च जायते अन्यः कश्चिदर्शनन्तज्ञानसुखादिगुणास्पदभूतः शाश्वतिकः परमात्मावाप्तिरूपः स्वभावद्रव्यपर्यायः । पर्यायो व्येति विनश्यति अन्यः पूर्वोक्तमोक्षपर्यायाद्भिन्नो निश्चयरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिरूपस्यैव मोक्षपर्यायस्योपादानकारणभूतः तदपि शुद्धद्रव्याथिकनयेन परमात्मद्रव्यं नैव नष्टं न चोत्पन्नम् ।'
यहां पर यह बतलाया गया है कि पर्यायदृष्टि से जीव की अनन्तज्ञान-सुख आदि गुणवाली शाश्वतिक मुक्तप्रवस्थारूप स्वभावद्रव्यपर्याय उत्पन्न होती है और उस मुक्तअवस्था ( पर्याय ) से भिन्न निश्चय रत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधिरूप तथा मोक्षपर्याय की उपादानकारण ऐसी मोक्षमार्गपर्याय का व्यय ( नाश ) होता है, किन्तु द्रव्याथिकदृष्टि से जीव द्रव्य न उत्पन्न होता और न नष्ट होता है। अर्थात् द्रव्यदृष्टि में न मोक्ष है और न मोक्षमार्ग है तथा न सम्यग्दृष्टि है और न मिथ्यादृष्टि है क्योंकि ये सब पर्यायें हैं।
यद्यपि शद्धात्मरुचिपरिच्छित्तिनिश्चलानुभूतिलक्षणस्य संसारावसानोत्पन्नकारणसमयसारपर्यायस्य विनाशो भवति तथैव केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपस्य कार्यसमयसारपर्यायस्योत्पादश्च भवति, तथाप्युभय पर्यायपरिणतात्मद्रध्यत्वेन ध्रौव्यत्वं पदार्थत्वादिति।' प्रवचनसार गा० १८ टीका
शुद्धात्मा की रुचिरूप सम्यक् श्रद्धान, उसी का सम्यग्ज्ञान तथा उसी की अनुभूति में निश्चलतारूप चारित्र इस रत्नत्रयमय लक्षण को रखनेवाले संसार के अन्त में होनेवाले कारण समयसाररूप मोक्षमार्ग पर्याय का यद्यपि नाश होता है और उसीप्रकार केवलज्ञान प्रादि की प्रगटतारूप कार्यसमयसाररूप मोक्षपर्याय का उत्पाद होता है तो भी दोनों ही पर्यायों में रहने वाले आत्मद्रव्य का ध्रौव्यपना रहता है।
यहां पर भी यही बतलाया गया कि पर्यायदृष्टि में ही मोक्षमार्गपर्याय का व्यय और मोक्षपर्याय का उत्पाद सम्भव है। द्रव्यदृष्टि में उत्पाद व व्यय न होने के कारण न मोक्ष है और न मोक्षमार्ग है।
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