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व्यक्तित्व र कृतित्व ]
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मन्दता है । गो० मा० प्र० अ० ७ में कहा है- 'ताका अभाव माने ज्ञान का अभाव होय तब जड़पना भया सो आत्मा के होता नहीं । तातें विचार तो रहे है, बहुरि जो कहिए, एक सामान्य ( द्रव्यदृष्टि ) का ही विचार रहता है, विशेष ( पर्याय ) का नाहीं तो सामान्य का विचार तो बहुत काल रहता नाहीं वा विशेष की अपेक्षा सामान्य का स्वरूप भासता नाहीं । बहुरि कहिए - प्रापही का विचार रहता है, पर का नाहीं, तो पर विषै पर बुद्धि भये बिना आप विष निजबुद्धि कैसे आवे।' इसी अधिकार में यह भी कहा है- 'चौथा गुणस्थान विषै कोई अपना स्वरूप चिन्तवन करे है ताके भी प्रस्रव बन्ध अधिक है, वा गुणश्रेणी निर्जरा नाहीं है । पंचम षष्ठम गुणस्थान विष आहार-विहारादि क्रिया होते परद्रव्य चितवन तें भी आस्रवबंध थोरा ही है वा गुणश्र ेणी निर्जरा हुआ करे है । तातैं स्वद्रव्य-परद्रव्य के चितवनतें निर्जराबन्ध नाहीं । रागादि घटे निर्जरा है,
रागादिक भये बंध है ।'
- जै. सं. 19-7-56 / VI / ....
चाण्डाल को देव कहना नैगमनय एवं द्रव्य निक्षेप का विषय
शंका- श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार में सम्यग्दर्शनसहित चाण्डाल का देह भी पूजनीय है ऐसा लिखा है, इस पर आप पूर्णरूप से प्रकाश डालें ।
समाधान-यह शंका पर्यायदृष्टि से की गई है, क्योंकि चाण्डाल, देह, सम्यग्दर्शन, शास्त्र, पूजनीय ये सब पर्यायें हैं । शंकाकार ने १५ मई के पत्र में लिखा था कि द्रव्यदृष्टि ही मोक्षमार्ग है ।
श्री र. क. श्री. के जिस श्लोक से शंकाकार का अभिप्राय है, वह श्लोक इसप्रकार है ।
सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् ।
देवा देवं विदुर्भस्मगूढांगारन्तरौजसम् ॥ २८ ॥
'मातङ्ग - देहजम्' का अभिप्राय चाण्डाल शरीर नहीं है, किन्तु चाण्डाल पुत्र से है, क्योंकि शरीर जो जड़ है वह सम्यग्दर्शन से सम्पन्न नहीं हो सकता है । 'सम्यग्दर्शन सहित चाण्डाल का देह भी पूजनीय है' ऐसा श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार में नहीं कहा गया है । अतः श्री मुकुटलाल की शंका में कोई सार नहीं है। फिर भी इस श्लोक नं० २८ के अभिप्राय पर प्रार्षग्रन्थानुसार विचार किया जाता है
अर्थ इस प्रकार है - अन्तरंग में प्रोजवाले भस्म से ढके हुए अंगारे के समान, सम्यग्दर्शन से सम्पन्न चाण्डाल पुत्र को भी देव ( गणधरदेव ) ने देव कहा है ।
'चाण्डाल पुत्र को देव कहा है' इसमें जो 'देव' शब्द है उसके अर्थ पर तथा नयविभाग पर विचार होना चाहिए ।
पंचनमस्कारमंत्र में अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, और साधु को नमस्कार किया गया है, किन्तु अविरतम्यष्टि या देश विरतसम्यग्दृष्टि को नमस्कार नहीं किया गया है। यदि अविरतसम्यग्दृष्टि या देशविरतसम्यग्दृष्टि पंचपरमेष्ठियों के समान देव होते तो उनको भी नमस्कार किया जाता, किन्तु उनको नमस्कार नहीं किया गया अतः वे देव नहीं हैं, क्योंकि वे सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप रत्नत्रय से युक्त नहीं हैं। श्री वीरसेनाचार्य ने कहा भी है
'देवो हि नाम त्रीणि रत्नानि स्वमेवतोऽनन्तभेदभिन्नानि तद्विशिष्टो जीवोऽपि देवः अन्यथाशेषजीवानामपि देवस्वापत्तेः ।'
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