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दूसरों के परिणामों को कभी मलिन नहीं करना चाहिए
शंका-स्वर्गो के देव राम, लक्ष्मण के प्रेम की परीक्षा करने के लिये मध्य लोक में आये । लक्ष्मण को कहा 'राम मर गया ।' इतने में लक्ष्मण ने प्राण त्याग कर दिया । देवों को पापबंध हुआ या नहीं ?
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
समाधान- शुभ, अशुभ और शुद्ध इन तीनप्रकार का जीवपरिणाम होता है । उपर्युक्त परिणाम शुद्ध और शुभ, इन दो प्रकार का तो नहीं हो सकता, क्योंकि, शुभ परिणाम तो मंदकषाय के सद्भाव में होता है और शुद्धपरिणाम कषाय के अभाव में होता है । अतः पारिशेषन्याय से देवों के उक्त परिणाम अशुभ ही हो सकते हैं और शुभोपयोग में पापबंध होता है । 'शुभः पुण्यस्याशुभ: पापस्य' शुभ से पुण्य बंध होता है और अशुभ से पाप बंध होता है । मो. शा. अ. ६ सूत्र ३ ) । अतः हमको कौतूहल या परीक्षारूप से भी ऐसे वचन उच्चारण नहीं करने चाहिये जिससे दूसरों के परिणाम को कष्ट होवे ।
- जै. सं. 18-10-56 /VI / जैनवी टदल; शिवाड़
किसी की कृति में किसी अन्य को परिवर्तन करने का कोई अधिकार नहीं है
शंका- श्री पं० मुन्नालाल रांधेलिया सागर ने छहढाला में निम्न परिवर्तन किया है। क्या उनका ऐसा करना ठीक ? मूल पाठ ( १ ) जो सत्यारथरूप सुनिश्चय कारण सो व्यवहारो (२) हेतु नियत को होई । परिवर्तित पाठ (1) जो सत्यारथरूप सु निश्चय कारण से व्यवहारो । ( २ ) हेतु नियत के होई ।
समाधान - रांधेलियाजी हो या अन्य कोई सज्जन हो, किसी को भी दूसरे की कृति में एक अक्षर का भी हेर-फेर करने का अधिकार नहीं है । छहढाला श्री पं० दौलतरामजी कृत है जिसमें प्राय: आचार्य कृत संस्कृत श्लोकों का पद्यरूप में अनुवाद हैं । अतः छहढाला के अक्षरों में हेर-फेर करना महान् अनुचित व अन्याय है । यदि छहढाला की कथनी से कोई विद्वान् सहमत नहीं है तो भी उसको छहढाला में परिवर्तन करने का अधिकार नहीं है ।
-- जै. ग. 13-8-70 / 1X / ....
१. प्रवचनसार के अनुवाद विषयक किसी स्थल पर प्राक्षेप का परिहार २. "अर्थ श्रागम से अबाधित होने चाहिए"
शंका- महावीरजी से प्रकाशित प्रवचनसार के सम्बन्ध में जनसन्देश में यह लिखा जा रहा है कि कुछ स्थलों पर शब्द के अनुसार अनुवाद नहीं किया गया है। आपने ऐसा क्यों किया ?
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समाधान - -श्री महावीरजी से जो प्रवचनसार प्रकाशित हुआ है उसका अनुवाद स्वर्गीय पं० अजितकुमारजी ने किया था । मैंने तो मात्र विषय सूची, विशेष - शब्द सूची, शुद्धिपत्र तैयार किया है । तथा प्रकाशन के लिये भिन्न संस्थानों से प्रकाशित प्रवचनसार व ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी का भाषानुवाद यह सामग्री श्री पं० अजितकुमारजी के पास भेज दी थी जिससे उनके मूल पाठ को शुद्ध करने तथा भाषानुवाद में कठिनाई न हो । मूलपाठ भेदों की सूची भी साथ में प्रकाशन से पूर्व भेज दी गई थी। श्री ब्र० लाडमलजी ने ग्रन्थ के आरम्भ में इस बात का स्पष्ट उल्लेख भी कर दिया है
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