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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : देशभूषण व कुलभूषण की मूर्ति बन सकती है ? वह पूजनीय है शंका-तीर्थंकरों के सिवा क्या किसी मोक्षगामी की मूर्ति नहीं बनाई जा सकती? यदि नहीं तो सिद्धक्षेत्र कुंथलगिरि क्षेत्र पर श्री १००८ देशभूषण और कुलभूषण की मूर्ति कैसे बनाई गई ?
समाधान-श्री अरहंत भगवान की प्रतिमा स्थापित हो सकती है और होती है। श्री देशभूषण व कुलभूषण भी परहंत हुए हैं अतः उनकी भी प्रतिमा हो सकती है । श्री सिद्धभगवान की प्रतिमा भी होती है। श्री वेशभूषण व कुलभूषण इससमय सिद्धअवस्था को प्राप्त हैं अतः उनकी प्रतिमा बन सकती है और वह पूजनीक है।
-जे. स. 30-1-58/VI/मनोहर राणाराम घोड़के परली बैजनाथ (बीड)
मूर्ति-निर्माण शंका-धातु की ५ इन्च पद्मासन मूर्ति गृहस्थ के चैत्यालय में प्रतिष्ठा कराके विराजमान की जाती है या नहीं ? क्योंकि आजकल इंचों के प्रमाण से ही मूर्तियाँ बनाई जाती हैं।
समाधान-प्रतिमा अंगुल के प्रमाण से बननी चाहिए। गृह चैत्यालय में १, ३, ५, ७, ९ व ११ अंगुल की प्रतिमा विराजमान हो सकती है । एक अंगुल ३/४ इंच का होता है, अतः प्रतिमा ७ अंगुल अर्थात् ५ इंच की होनी चाहिए, पांच इंच की नहीं।
-जं. सं. 24-5-56/VI/ अ. ना. ऋषभदेव
ईश्वर | मूर्तिपूजा शंका-ईश्वर निराकार है तो फिर उन्हें आकार देकर अर्थात् उनकी मूर्ति बनाकर क्यों पूजा जाता है ?
समाधान-आकार का अर्थ मूर्तिक है। स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णसहित को मूर्तिक कहते हैं। ईश्वर अर्थात् सिद्ध भगवान के कर्मों का सम्बन्ध नहीं रहा है अतः वे सर्वप्रकार से अमूर्तिक हो गये हैं। अमूर्तिक हो जाने के कारण सिद्धभगवान को अमूर्तिक कहा है। अथवा सिद्धभगवान अनन्त हैं और उनका आकार भिन्न-भिन्न है । कोई एक प्रतिनियत आकार नहीं है। इसप्रकार ईश्वर का कोई एक नियत आकार नहीं कहा जा सकता। इस अपेक्षा से भी ईश्वर को अनिर्दिष्ट संस्थान अर्थात् निराकार कहा है, किन्तु हर एक तीर्थङ्कर भगवान का आकार है, क्योंकि बिना आकार के किसी भी द्रव्य की सत्ता नहीं होती है। उन तीर्थङ्कर भगवान की मूर्ति में स्थापना करके मूर्ति की पूजा की जाती है । जिनेन्द्र भगवान की मूर्ति की यथार्थपूजा से परिणामों में विशुद्धता आती है, परिणाम निर्मल होते हैं । उन अात्म परिणामों के निमित्त से कर्मों की निर्जरा होती है।
-जें. सं. 2-8-56/VI/नि. कु. ड्रमरीतलंया प्रतिमा पर चिह्न-निर्णय का प्राधार शंका-भगवान की प्रतिमा पर चिह्न किस आधार पर बनाये गये ?
समाधान-अभिधान चिन्तामणि ( हेमकोश ) में इन चिह्नों को तीर्थंकरों की ध्वजाओं के चिह्न बताये हैं तथा भाष्य में यह और विशेष बताया है कि ये चिह्न तीर्थंकरों के दक्षिण अंग में होते हैं। (पृ० १७, काण्ड १,
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