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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
धम्मो दयाविसुद्धो, पम्वज्जा सम्वसंगपरिचता।
देवो ववगयमोहो उदयकरो भव्वजीवाणं ॥२५॥ बोधपाहुड़ अर्थ-दयाकरि विशुद्ध तो धर्म है, प्रव्रज्या सर्वपरिग्रहते रहित है, जिसका मोह नष्ट हो गया वह देव है। ये भव्यजीवों के मनोरथ पूर्ण करनेवाले अर्थात् मुक्ति देनेवाले हैं।
छज्जीव छडायदणं णिच्चं मणवयणकायजोएहि ।
कुरु दय परिहर मुणिवर भावि अपुव्वं महासत्त ॥१३१॥ भावपाहड़ इस गाथा में भी श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने छहकाय ( पांच स्थावर और एक त्रस ) अर्थात् सब जीवों पर मन, वचन, काय से दया करने का आदेश दिया है।
जीवदया दम सच्चं अचोरियं बंभचेर-संतोसे ।
सम्म सण गाणे तओ य सीलस्स परिवारो ॥१९॥ शीलपाड़ अर्थ-जीवदया, इंद्रियों का दमन, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य संतोष, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और तप ये . सर्वशील ( जीवस्वभाव ) के परिवार हैं ।
आया सवतसंचयस्य जननी सौख्यस्य सत्संपदां, मूलं धर्मतरोरनश्वर-पदारोहैक निःश्रोणिका। कार्या सद्भिरिहाङ्गिषु प्रथमतो नित्यं दया धार्मिकः
धिङ नामाप्यदयस्य तस्य च परं सर्वत्र शून्या दिशः ॥१-८॥ प. नं. पं. वि. अर्थ-यहां धर्मात्मा सज्जनों को सबसे पहिले प्राणियों के विषय में नित्य ही दया करनी चाहिये, क्योंकि वह दया समीचीन व्रतसमूह सुख एवं उत्कृष्ट सम्पदाओं की मुख्य जननी अर्थात् उत्पादक है। दया धर्मरूपी वृक्ष को जड़ है, तथा अविनश्वरपद अर्थात् मोक्षमहल पर चढ़ने के लिये नसैनी का काम करती है । निर्दय पुरुष का नाम लेना भी निन्दाजनक है, उसके लिये सर्वत्र दिशायें शून्य जैसी हैं।
जन्तुकृपादितमनसः समितिषु साधोः प्रवर्तमानस्य ।
प्रारणेन्द्रिय-परिहारं संयममाहुमहामुनयः ।।१।९६॥ पद्म० पं० अर्थ-जिसका मन जीव-अनुकम्पा से भीग रहा है तथा जो ईर्या, भाषा आदि ( देखकर चलना, देखकर वस्तु को रखना उठाना जिससे जीवों को बाधा न हो तथा हित-मित-वचन बोलना, कठोरवचन नहीं कहना) पाँचसमितियों में प्रवर्तमान है ऐसे साधु के द्वारा षट्काय ( सर्व ) जीवों की रक्षा और अपनी इन्द्रियों का दमन किया जाता है उसे गणधरदेवादि महामुनि संयम कहते हैं।
येषां जिनोपदेशेन कारण्यामृतपूरिते। चित्ते जीवदया नास्ति तेषां धर्मः कुतो भवेत् ॥६॥३७॥ मूलं धर्मतरोराद्या व्रतानां धाम संपदाम् । गुणानां निधिरित्यङ्गिन्दया कार्या विवेकिभिः ॥६॥३८॥ सर्वे जीवदयाधारा गुणास्तिष्ठन्ति मानुषे । सूत्रधाराः प्रसूनानां हाराणां च सरा इव ॥३९॥ पद्म० ५०
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