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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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है। और गाथा ३२१ से ३२३ में यह बतलाया है कि नर-नारकादि जीव की पर्यायों का प्रात्मा कर्ता नहीं है, किन्तु प्रवचनसार गाथा ११७-११८ में 'णरणारतिरियसूरा जीवा खलु णाम कम्मणिवत्ता।' जीव की नर, नारक, तियंच, देवपर्यायों का कर्ता नामकर्मरूप पुद्गल को बतलाया है । इसप्रकार श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने जीवद्रव्य की नर, नारकादि पर्यायों का कर्ता आत्मा को न मानकर पौगलिक नामकर्मको स्वीकार किया है और समयसार व पंचास्तिकाय की प्रथम गाथानों में अरहंत भगवान को पौद्गलिक वचनों ( उपदेश ) का कर्ता बतलाया है । समयसार गाथा ८६ में जो द्विक्रियावादी को मिथ्यादृष्टि कहा है वहाँ पर उपादान की अपेक्षा से कथन है। इस गाथा म 'उपदेश' के विषय में कुछ वर्णन नहीं है । अतः यह गाथा भी प्रकरण से बाहर है।
सभी प्राचार्यों ने श्री अरहंतभगवान को श्री गणधरदेव तथा अन्य प्राचार्यों को उपदेशदाता बतलाया है, किसी भी आचार्य ने उपदेश को मात्र जड की क्रिया नहीं बतलाया। आर्षवाक्यों का खण्डन अनार्षवाक्यों द्वारा नहीं हो सकता है।
मोक्षमार्ग प्रकाशक का प्रमाण सोनगढ़वालों ने दिया है, किन्तु मोक्षमार्गप्रकाशक में तो 'उपदेश को अरहंत भगवान की क्रिया' बतलाया है जो निम्नप्रकार है
मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ० २ पर 'अरहंत' का स्वरूप बतलाते हुए लिखा है-बहुरि जिनके वचननित लोकविर्ष धर्मतीर्थ प्रवर्ते है, ताकरि जीवनि का कल्याण हो है।
मोक्षमार्गप्रकाशक पृ०५ पर आचार्य का स्वरूप बतलाते हुए लिखा है-'धर्मोपदेश देते हैं।'
मोक्षमार्गप्रकाशक पृ० १५ पर लिखा है-'तीर्थंकर केवलीनिका, जाकरि अन्य जीवनिक पदनिका अर्थ निका ज्ञान होय ऐसा, दिव्यध्वनिकरि उपदेश हो है ।' 'सो केवलज्ञानी विराजमान होइ जीवनिको दिव्यध्वनिकरि उपदेश देता भया ।'
मोक्षमार्ग-प्रकाशक पृ० १८ पर लिखा है-'प्रथम मूल उपदेशदाता तो तीर्थकर केवली भये सो तो सर्वथा मोह के नाशते सर्व कषायनि करि रहित हैं।'
मोक्षमार्गप्रकाशक पृ० १९ पर लिखा है-'मूल ग्रन्थ कर्त्ता तो गणधर हैं ते आप चार ज्ञान के धारक हैं पर साक्षात् केवली का दिव्यध्वनि उपदेश सुने हैं ताका अतिशयकरि सत्यार्थ ही भास हैं अर ताही के अनुसार ग्रन्थ बनाव हैं ।'
सोनगढ़वालों ने स्वयं अपने उत्तर पृ० २९ तथा आत्मधर्म पृ० ५६५ पर 'श्री कुन्दकुन्दाचार्य सर्वज्ञ भगवान की साक्षी देकर कहते हैं कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य की क्रिया का कर्ता हो सकता है, ऐसा माननेवाले द्विक्रियावादी मिथ्याष्टि हैं।' यह लिखकर स्वीकार कर लिया कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य तो जीवद्रव्य हैं और उन्होंने पुद्गलरूप वचनों को कहा अर्थात् उपदेश श्री कुन्दकुन्दभगवान की क्रिया थी, जड़ की क्रिया नहीं थी।
इसप्रकार सोनगढवालों के उत्तर से सोनगढ़ की मान्यता का खंडन होता है। आज तो दिगम्बरेतर समाज के ग्रन्थों के आधार पर जैनधर्म का उपहास होता है, कल को सोनगढ़ के साहित्य पर से जैनधर्म का उपहास होगा, क्योंकि सोनगढ़साहित्य में कार्य-कारणभाव के विषय में महान भूल है। उस भूल के कारण ही सोनगढ के नेता उपदेश को जड़ की क्रिया' कहते हैं । जैनेतर समाज में क्या यह उपहास का कारण नहीं बनेगा?
-जे. ग. 6-6-66/IX/.......
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