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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १३५९
समयसार कलश ७० से ७९ तक व्यवहार व निश्चयनय के विषय 'बद्ध-प्रबद्ध, मूढ़-प्रमूढ़, रागी-परागी, द्वषी-अद्वेषी, कर्ता-अकर्ता, भोक्ता-अभोक्ता, जीव-अजीव, सूक्ष्म-स्थूल, कारण-अकारण, कार्य-प्रकार्य, भाव-अभाव, एक-अनेक, सान्त-अनन्त, नित्य-अनित्य, वाच्य-अवाच्य, नाना-अनाना, चेत्य-अचेत्य, दृश्य-अदृश्य, भाव-प्रभाव' बताकर दोनों नयों का पक्षपात बताया है और दोनों नयों के पक्षपात छोड़ने का उपदेश दिया है।
व्यवहारनय के कथन को अवास्तविक मानने से न तो बन्ध ( संसार ) सिद्ध होता है न मोक्ष सिद्ध होता है, न हिंसा सिद्ध होती है, सर्वज्ञता का अभाव होता है, जिनवाणी की प्रमाणता का अभाव होता है। इसप्रकार अनेक दूषण आते हैं।
व्यवहारनय के कथन को वास्तविक माननेरूप चाबी ( Master Key ) के द्वारा यदि दिगम्बरजैनागम का अर्थ खोला जावेगा तो मोक्षमार्ग की प्राप्ति न होकर नरक-निगोदमार्ग की प्राप्ति अवश्य हो जावेगी।
व्यवहार व निश्चय दोनों अपने-अपने विषय का यथार्थ प्रतिपादन करते हैं। दोनों की सापेक्षता से ही वस्तुस्वरूप की सिद्धि होती है। जैसे निश्चयनय की अपेक्षा से वस्तु नित्य है, व्यवहारनय से वस्तु अनित्य है, विशेष है। वस्तुस्वरूप न केवल नित्य ही है और न केवल अनित्य है, न केवल सामान्य ही है और न केवल विशेष ही है। किन्तु कथञ्चित् नित्य है, कथञ्चित् अनित्य है, कथञ्चित् सामान्य है, कथञ्चित् विशेष है अथवा वस्तुस्वरूप नित्यानित्यात्मक है । सामान्यविशेषात्मक है।
श्री प्रवचनसार के परिशिष्ट में श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव ने कहा है-'जितने वचनपन्थ हैं, उतने वास्तव में नयवाद हैं और जितने नयवाद हैं, उतने ही परसमय हैं। परसमयों ( मिथ्यामतियों) का वचन सर्वथा ( अर्थात अपेक्षारहित ) कहा जाने से वास्तव में मिथ्या है और जैनों का वचन कथञ्चित् अपेक्षासहित कहा जाने से वास्तव में सम्यक् है।'
दिगम्बर जैनागम में जो व्यवहारनय से कथन है वह अवास्तविक नहीं है, किन्तु व्यवहारनय की अपेक्षा से वह कथन वास्तविक है। इसप्रकार दि० जैनागम का अर्थ करने से मोक्षमार्ग की सिद्धि होगी।'
-जै. सं. 12-12-57/VI/ब. प्र. स. पटना उपचरित स्वभाव का ग्राहक व्यवहार नय भी समीचीन है शंका-क्या व्यवहार-उपचार का वर्णन करने वाला मिथ्यादृष्टि है ?
समाधान—आलापपद्धति स्वभावअधिकार में द्रव्य के स्वभाव का कथन श्री देवसेनाचार्य ने निम्नप्रकार किया है
१. (अ) व्यवहार अपने अर्थ में उतना ही सत्य है, जितना कि निश्चय । श्रीयुत् पं. फूलचन्द्रजी सि. भारती [ काली ] [ वर्णी अभिनंदन ग्रंथ पृ. 3५४-५५] (ब) 'श्रीमद राजचन्द्र' में लिखा है-नयनिश्चय एकांत थी, आमां नथी कहेल । एकांते व्यवहार महि,
बने साथ रहेल ||१32।। आत्मसिद्धि प. १२१ अर्थ-शास्त्रों में एकांत से निम्पयनय को नहीं कहा, अथवा एकांत से व्यवहार नय को भी नहीं कहा। दोनों ही जहाँ-जहां जिस जिस तरह घटते हैं, उस तरह साथ रहते है।
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