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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १३३९ मोक्षहेतुः पुनधा निश्चय-व्यवहारतः । तवाद्यः साध्यरूपः स्याद्वितीयस्तस्य साधनः ॥२८॥ अर्थ-मोक्षमार्ग निश्चय और व्यवहार से दो प्रकार का है। पहला साध्यरूप और दूसरा साधनरूप है। निश्चय और व्यवहार दोनों प्रकाररूप मोक्षमार्ग से रहित मोक्ष की सिद्धि नहीं है। इसी बातको श्री जयसेनाचार्य पंचास्तिकाय गाथा १०६ को टीका में कहते हैं-'निश्चयव्यवहारमोक्षकारणे सति मोक्षकार्य संभवति, तत्कारणाभावे मोक्षकार्य न संभवति ।' अर्थात-निश्चय और व्यवहार मोक्षमार्ग के होने पर ही मोक्षकार्य होना सम्भव है और निश्चयव्यवहार मोक्षमार्ग के अभाव में मोक्षकार्य संभव नहीं है। इसी बातको श्री अमृतचन्द्राचार्य भी कहते हैं सम्यक्त्वचारित्रबोध-लक्षणो मोक्षमार्ग इत्येषः । मुख्योपचाररूपः प्रापयतिपरमपदं पुरुषम् ॥२२२॥ पु० सि० उ० अर्थ-निश्चय-व्यवहाररूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र वाला मोक्षमार्ग प्रात्मा को परमपद प्राप्त कराता है। 'निश्चयव्यवहाराभ्यां साध्यसाधकरूपेण परस्परसापेक्षाभ्यामेव भवति मुक्ति सिद्धये न च पुननिरपेक्षाभ्यामिति वातिक।' पंचास्तिकाय गाथा १७२, श्री जयसेनाचार्य कृत टीका अर्थ-परस्पर सापेक्ष साध्यसाधकरूप निश्चय-व्यवहार के द्वारा मोक्ष की सिद्धि होती है, निरपेक्ष निश्चय-व्यवहार के द्वारा मोक्ष की सिद्धि नहीं होती, यह वार्तिक है। जिसप्रकार मनुष्य के शरीर में प्रॉपरेशन होने पर जख्म (घाव ) को धोना तथा पटटी बाँधना आवश्यक है उसीप्रकार सेफ्टिक के निराकरण के लिये दवाई लेना भी उतना ही आवश्यक है। इन अंतरंग और बहिरंग दोनों प्रकार की दवाई में से यदि किसी भी एकप्रकार की दवाई का प्रयोग न किया जावे तो जखम को पाराम नहीं होगा, क्योंकि ये दोनों प्रकार की दवाई एक दूसरे की अपेक्षा रखती हैं। मोक्षमार्ग में भी निश्चय और व्यवहार दोनों रत्नत्रय की आवश्यकता है। निश्चय और व्यवहार इन दोनों रत्नत्रय में से किसी भी एक रलत्रय के अभाव में मोक्ष की सिद्धि नहीं हो सकती। यह बात उपयुक्त पार्षवाक्यों में कही गई है। इसी बातको पंडितवर दौलतरामजी छहढ़ाला में इन शब्दों द्वारा कहते हैं मुख्योपचार दु भेद यौं, बड़भागि रत्नत्रय धरै । अरु धरेंगे ते शिव लहैं, तिन सुजस जल जगमल हरे॥ अर्थात-जो भाग्यशाली पुरुष निश्चय और व्यवहार इन दो प्रकार के रत्नत्रय को धारण करते हैं या धारण करेंगे उनको मोक्ष की प्राप्ति होती है । उनका सुयशरूपी जल संसाररूपी मल को हरता है। इसप्रकार व्यवहार रत्नत्रय भी मोक्षमार्ग में प्रयोजनवान तथा उपयोगी है। जो मनुष्य व्यवहार को सर्वथा हेय जान ग्रहण नहीं करते हैं, वे नरक-निगोद प्रादि दुर्गति में भ्रमण करते हैं । -जं. ग. 19, 26-3-64/IX, IX/चे. प्र. पा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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