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व्यक्तित्व र कृतित्व ]
[ १३२७
द्रव्यकर्म नोकर्म रहित हो तो ज्ञानादिक की व्यक्तता क्यों नहीं ? परमानन्दमय हो तो अब कर्तव्य कहाँ रह्या ? जन्म-मरण दुख ही नाही तो दुखी कैसे होते हो ? तातं अन्य अवस्थाविषे अन्य अवस्था मानना भ्रम है।
पृ० २९३ पर कहा है- आपको द्रव्यपर्यायरूप अवलोकना। द्रव्यकरि सामान्य स्वरूप अवलोकना पर्यायकरि विशेषरूप अवधारना। ऐसे ही चितवन किये सम्यष्टि होय है।'
इन उपर्युक्त कथनों में यह कहा गया है 'निश्चय की मुख्यता करि जो कथन किया होय ताहि को ग्रहण करि मिथ्यादृष्टि होय है ।' यदि निश्चयनय भूतार्थ है और वस्तु का जैसा स्वरूप है तैसा निरूप है ( पृ० ३६६ ), तो निश्चयनय के कथन को ग्रहण करनेवाला मिथ्यादृष्टि क्यों ? 'शुद्धरूप चितवन करना भ्रम है' ( पृ० २९२ ) ऐसा क्यों ?
व्यवहारय करि जीव की मुक्त अवस्था है। निश्चवनय करि तो जीव न प्रमत्त है और न प्रप्रमत्त है, किन्तु एक अवस्थारूप है । व्यवहारनय का कथन जो मुक्तप्रवस्था को उपादेय न माने अर्थात् यदि व्यवहारनय को उपादेय न माने तो 'बन्ध के नाश का मुक्त होने का उद्यम काहे को करिये है काहै को श्रात्मानुभव करिये है ।' पृ० २९१ के इस कथन से स्पष्ट है कि व्यवहारनय के कथन को भी उपादेय माना गया है । पृ० २९८ पर भी कहा है- बहुरि जो तू कहेगा, कई सभ्यम्टष्टि भी तपश्चरण नाहीं करे हैं। ताका उत्तर—यह कारण विशेष तं तप न हो सके है । परन्तु श्रद्धानविषै तो तप को भला जाने है । ताके साधन का उद्यम राखे है ।' यहाँ पर भी व्यवहारनय के कथन जो तप, सम्यग्दष्टि उसको श्रद्धानि विषं भला जान है (अर्थात् उपादेयरूप श्रद्धान करे है।) और तप के साधन का उद्यम राखे है ( अर्थात् सम्बन्दष्टि अनशनादि तप का उपादेयरूप से श्रद्धान करे है और उस तप को उपादेय मान उसके साधन का प्रयत्न करे है) यहाँ पर भी व्यवहारनय के कथन अनशनादि तप को उपादेय रूप से श्रद्धान करने को और ग्रहण करने को कहा है।
पृ० २९३ पर द्रव्यकरि सामान्य स्वरूप अवलोकना, पर्यायकरि विशेष अवधारना। ऐसे ही चितवन किये सम्यग्दष्टि होय है।' वस्तु सामान्यरूप भी है और विशेषरूप भी है 'सामान्य' निश्चयनय का विषय है, 'विशेष' व्यवहारनय का विषय है। सामान्य विशेष दोनों रूप अर्थात् 'ऐसे भी है, ऐसे भी है' इसरूप चितवन करनेवाला सम्यष्टि है। यह इस कथन का तात्पर्य है। यदि कोई निश्चयनय के कथस 'सामान्य' को सत्यार्थ माने और व्यवहारनय के विषय विशेष ( परिणमन ) को असत्यार्थ मानेगा तो उसके मत में वस्तु नित्य कूटस्थ हो जाने से अर्थक्रियाकारी नहीं रहेगी, जिससे वस्तु के अभाव का प्रसंग आजायगा और सांख्यमत की तरह एकान्तमिथ्यादृष्टि हो जायगा। इसीलिये निश्चयनय के कथन 'सामान्य' और व्यवहारनय का कथन 'विशेष' दोनों की श्रद्धा करनेवाले को सम्यग्दष्टि कहा है ।
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पृ० २९६ पर भी कहा है केवल आत्मज्ञान ही ते तो मोक्षमार्ग होइ नाहीं । सप्त तत्त्वनिका श्रद्धान ज्ञान भए व रागादिक दूर किये मोक्षमार्ग होगा। सो सप्ततस्वनिका विशेष जानने की जीव अजीव के विशेष व कर्म के श्रास्रव-बन्धादिक का विशेष अवश्य जानना योग्य है, जातै सम्यग्दर्शन-ज्ञान की प्राप्ति होय बहुरि तहाँ पीछे रागादि दूर करने, सो जे रागादिक बंधावने के कारण तिनको छोड़ि जे रागादिक घटावने के कारण होय तहाँ उपयोगको लगावना' यहाँ पर निश्चयनय का कथनरूप जो प्रात्मज्ञान उसके तो मोक्षमापने का निषेध किया । और व्यवहारनय का कथन 'सात तत्त्व का श्रद्धान ज्ञान व रागादि श्रोपाधिक भावों का दूर करना' इसको मोक्षमार्ग कहा है ।
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