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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
प्रयोजनवान है । श्री अमृतचन्द्राचार्य ने पंचास्तिकाय की टीका में कहा भी है कि व्यवहारनय के द्वारा प्राथमिक सुख से मोक्षमार्ग के पारगामी होते हैं ।
"व्यवहारनयेन भिन्नसाध्यसाधनभावानवलम्ब्याना विभेदवासितबुद्धयः सुखेनावतरन्ति तीर्थं प्राथमिकाः ।" ( पं. का. गा. १७२ टीका )
चूंकि व्यवहारनय के द्वारा प्राथमिक सुख से मोक्षमार्ग के पारगामी होते हैं, इसीलिये श्री पद्मनन्दिआचार्य ने 'व्यवहारो भूतार्थः ' तथा संस्कृत टीकाकार ने 'व्यवहारो भूतार्थः, भूतानां प्राणिनाम् अर्थः भूतार्थ: ।' इन शब्दों द्वारा व्यवहारनय को भी भूतार्थ कहा है । ( प० पं० ११९ )
यदि व्यवहारनय और उसके विषय को झूठ या असतू माना जायगा तो उपर्युक्त दोषों ( बंध का अभाव तथा मोक्ष व मोक्षमार्ग का अभाव ) के अतिरिक्त सर्वज्ञता का भी प्रभाव हो जायगा, क्योंकि श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने 'जादि पसवि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं ।' इन शब्दों द्वारा यह बतलाया है कि केवली भगवान सर्व को व्यवहारनय से ( उपचरित श्रसद्भूतव्यवहारनय से ) देखते जानते हैं ।
नयशास्त्र से अनभिज्ञ बहुत से असद्भ ूत का अर्थ असत् अर्थात् झूठ करते हैं। उनका ऐसा अर्थ करना ठीक नहीं है । जिनकी एक सत्ता नहीं है अर्थात् तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है उनको अद्भुत कहते हैं । गुरण और गुणी की एक सत्ता है, क्योंकि उनका तादात्म्यसम्बन्ध है अतः गुण-गुणी का सम्बन्ध सद्भूतव्यवहारनय का विषय है । किन्तु ज्ञान और ज्ञेय का तादात्म्यसम्बन्ध न होने से एक सत्ता भी नहीं है, अतः ज्ञान और ज्ञेय का सम्बन्ध अद्भूत व्यवहारनय का विषय है ।
इसीप्रकार वे उपचरित का अर्थ कहने मात्र को करते हैं सो भी ठीक नहीं है । 'उपचरित प्रसद्भूतव्यवहारनय' में उपचरित शब्द संश्लेषसम्बन्ध के निषेध का द्योतक है। जिसप्रकार शरीर और श्रात्मा का संश्लेषसम्बन्ध है उसप्रकार का संश्लेषसम्बन्ध ज्ञान और ज्ञेय में नहीं है अतः यह उपचरित-प्रसद्भूतव्यवहारनय का विषय है। ज्ञान और ज्ञेय का सम्बन्ध कहने मात्र का नहीं है, किन्तु यथार्थ है । यदि ज्ञान और ज्ञेय का सम्बन्ध यथार्थ न हो तो दोनों के अभाव का प्रसंग आ जायगा । ज्ञान और ज्ञेय का प्रभाव है नहीं, अतः ज्ञान और ज्ञेय का सम्बन्ध यथार्थ है ।
इसप्रकार आर्ष ग्रन्थों के प्रमाणों से यह सिद्ध हो गया कि व्यवहारनय तथा उसका विषय झूठ, प्रसत् या यथार्थ नहीं है किन्तु यथार्थ है और इस व्यवहारनय से ही मोक्ष और मोक्षमार्ग की सुव्यवस्था होती है और बहुत जीवों का उपकारी है, अतः यह व्यवहारनय प्रयोजनवान है श्री गौतम गणधर ने भी इस व्यवहारनय का श्राश्रय लिया है ।
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- जै. ग. 3-12-70/X/ रो. ला. मित्तल
व्यवहार सर्वथा अभूतार्थ नहीं और निश्चय सर्वया भूतार्थ नहीं
शंका- यदि व्यवहारनय का कथन वास्तविक है तो मोक्षमार्गप्रकाशक के सातवें अधिकार में पं० टोडरमलजी ने ऐसा क्यों कहा - 'निश्चयनय द्वारा जो निरूपण किया हो उसे तो सत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान अंगी - कार करना चाहिये और व्यवहारनय द्वारा जो निरूपण किया हो उसे असत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान छोड़ना चाहिये । व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्य को तथा उसके भावों को तथा कारणकार्यादिक को किसी के किसी में मिला
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