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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
सम्बन्ध चारित्र - चर्या सम्बन्ध, इत्यादि तथा सत्यार्थरूप, असत्यार्थरूप, सत्यासत्यार्थरूप होता है । इसप्रकार उपचरित प्रसद्भूतव्यवहारनय का विषय समझना चाहिये । '
परिणाम- परिणामीसम्बन्ध की दृष्टि में 'मिट्टी का घड़ा' और संयोगसम्बन्ध की दृष्टि में 'घी का घड़ा' दोनों ही नय के वचन हैं । अतः 'मिट्टी का घड़ा' और 'घी का घड़ा' दोनों व्यवहार सत्य हैं ।
उपचरित या अनुपचरित के एकान्त पक्ष में इसप्रकार दोष आता है- " उपचरितएकांतपक्ष में भी नियमित पक्ष होने से आत्मा के आत्मज्ञता सम्भव नहीं और अनुपचारित एकांतपक्ष में भी श्रात्मा के परज्ञता ( सर्वज्ञता ) श्रादि का विरोध हो जायगा ।"
एक कमरे में मिट्टी के चार घड़े रखे हुए थे उसमें से एक में तैल, दूसरे में घी, तीसरे में पानी और चौथे में चावल थे | यदि आप किसी से यह कहें कि 'मिट्टी का घड़ा' ले आओ, तो वह नहीं समझ सकेगा कि इन चारों घड़ों में से कौनसा घड़ा लेजाया जावे परन्तु 'घी का घड़ा' कहने पर वह तुरन्त घी से भरे हुए घड़े को ले श्रायेगा । 'घी का घड़ा' कहना सत्यार्थ है; तभी तो वह 'घी का घड़ा' कहने पर घड़ा ले आया ।
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जैसे ‘बन्ध्या के लड़के को लाओ' ऐसा वचन कहने पर वह किसी लड़के को नहीं ला सकता क्योंकि 'बन्ध्या का लड़का' कहना असत्यार्थ है । इसप्रकार यदि घी का का घड़ा' असत्यार्थ होता तो वह घड़ा नहीं ला सकता था ।
प्रत्येकवस्तु में अनेकधर्म होते हैं, क्योंकि वस्तु अनेकांतात्मक है । प्रत्येक नय से वस्तु के किसी न किसी धर्म की मुख्यता से वस्तु का ज्ञान होता है । कहा भी है-द्रव्यों का जिसप्रकार स्वरूप है, लोक में भी वह द्रव्यों का स्वरूप उसीप्रकार से स्थित है तथा ज्ञान से उसीप्रकार जाना जाता है तथा नय से भी नियम करके उसीप्रकार जाना जाता है ( आलापपद्धति गाथा ११ ) । निश्चयनय से द्रव्य नित्य है और व्यवहारनय से द्रव्य अनित्य है । क्या इन दोनों नयों के व्याख्यानों को सत्यार्थं न जानें ? वस्तु नित्य भी है और अनित्य भी है; क्या यह भ्रमरूप है । वस्तु नित्य भी है और अनित्य भी है यह निश्चय और व्यवहारनय का यथार्थ ग्रहण है ।
जीव के गुण चेतना तथा उपयोग है और जीव की पर्यायें देव, मनुष्य, नारक, तिर्यंचरूप अनेक हैं ( पंचास्तिकाय गाथा १६ ) । ' पर्याय रहित द्रव्य और द्रव्यरहित पर्यायें नहीं होती । द्रव्य और पर्याय इन दोनों का अनन्यभाव है ( पंचास्तिकाय गाथा १२ ) । द्रव्यबिना गुण नहीं होते और गुणों बिना द्रव्य नहीं होता, इसलिये द्रव्य और गुणों का अव्यतिरिक्त भाव ( प्रभिन्नपना ) है ( पंचास्तिकाय गाथा १३ ) | श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने द्रव्य और पर्याय इन दोनों में परस्पर अनन्यभाव बतलाया और मनुष्य, देव, तिर्यंच, नारकयादि जीव की पर्यायें बतलाई, अतः मनुष्य जीव है, तिर्यंच जीव है, क्या यह सत्यार्थ नहीं है ? क्या मनुष्य, तिथंच प्रजीव हैं ? 'मनुष्य,
१. 'उपचार: पृथग् नयो नास्तीति न पृथग् कृतः । मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते धोपचार: प्रवर्तते । सोपि सम्बन्धोऽविनाभावः संश्लेषः सम्बन्धः, परिणामपरिणामिसम्बन्धः, श्रद्धा श्रद्धेयसम्बन्धः ज्ञानशेयसम्बन्धः, चारितचर्या सम्बन्धश्वेत्यादि सत्यार्थः असत्यार्थ सत्यासत्यार्थश्चेत्युपचरि तासद्भूतव्यवहार नयस्यार्थः ।
2. 'उपपरित कान्त पक्षेऽपि नामत्रता सम्भवति निमित्तपक्षत्वात् । तथाऽत्मनोऽनुपचस्तिपक्षेऽपि परज्ञतादीनां विरोध: स्यात् । ( आलापपद्धति )
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