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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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प्रमेय के निश्चयकाल में अज्ञान की निवृत्ति होती है अतः अज्ञाननिवृत्ति ( सम्यग्दर्शन ) ज्ञान का साक्षात् फल है । हान, उपादान और उपेक्षा ( चारित्र अर्थात् संयम ) ये ज्ञान के पारम्पयं फल हैं, क्योंकि ये प्रमेय के निश्चय करने के उत्तरकाल में होते हैं।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञान और सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति का एक ही काल है। श्री अकलंकदेव ने भी 'ज्ञानवर्शनयोयुगपदात्मलाभः ।' द्वारा यही कहा है कि ज्ञान और दर्शन की एक साथ उत्पत्ति होती है । इस सहचरता के कारण किसी एक के ग्रहण से दोनों का ग्रहण हो जाता है। जैसे पर्वत और नारद में सहचरता के कारण पर्वत के ग्रहण से नारद का भी ग्रहण हो जाता है और नारद के ग्रहण से पर्वत का भी ग्रहण हो जाता है। श्री अकलंकदेव ने कहा भी है
___ "यथा साहचर्यात पर्वतनारवयोः पर्वतग्रहणेन नारदस्य ग्रहणं, नारदग्रहणेन वा पर्वतस्य तथा सम्यग्दर्शनस्य सम्यग्ज्ञानस्य वा।"
ज्ञान और दर्शन की सहचरता के कारण कहीं पर ज्ञान का फल दर्शन कहा गया है और कहीं पर दर्शन का फल ज्ञान कहा गया है। सहचरता की दृष्टि में ज्ञान और दर्शन दोनों को किसी एक नाम के द्वारा भी कहा गया है अत: वहाँ पर कौन किस का फल है यह नहीं कहा जा सकता है।
यदि चारित्र को ज्ञान का फल न माना जाय तो अज्ञान का फल मानना होगा जो कि लेखक महोदय को भी इष्ट न होगा। चारित्र ज्ञान का ही फल है ऐसा महान् आचार्यों ने कहा है
'ज्ञातापि संभ्रांत्या परकीयान्भावानावायास्मीयप्रतिपत्त्यात्मन्यध्यास्य शयानः स्वयमज्ञानी सन् गुरुणा परभावविवेकं कृत्यैकी क्रियमाणो मक्ष प्रतिवुध्यस्वीकः खन्वयमात्मेत्यसकृच्छोतं वाक्यं शृण्वन्नखिलश्चिन्हैः सुष्टु परीक्ष्य निश्चितमेव परमावा इति ज्ञात्वा ज्ञानी सन् मुचति सर्वान परभावानचिरात् ।" समयसार गाथा ३५ टीका ।
श्री पं० जयचन्दजी कृत अर्थ-ज्ञानी भी भ्रम से परद्रव्य के भावों को ग्रहणकर अपने ज्ञान आत्मा में एकरूप कर सोता है, बेखबर हुमा आपही से अज्ञानी हो रहा है। जब श्री गुरु इसको सावधान करें परभाव का भेदज्ञान कराके एक आत्मभाव करें और कहें कि तू शीघ्र जाग, सावधान हो यह तेरी आत्मा है वह एक ज्ञानमात्र है अन्य सब परद्रव्य के भाव हैं। तब बारम्बार यह आगम के वाक्य सुनता हुआ समस्त अपने पर के चिह्नों से अच्छी तरह परीक्षाकर ऐसा निश्चय करता है कि मैं एक ज्ञानमात्र हूँ अन्य सब परभाव हैं। ऐसे ज्ञानी होकर सब परभावों को तत्काल छोड़ देता है।
"इत्येवं विशेषवर्शनेन यदेवायमात्मास्रवयोवं जानाति तदेव क्रोधादिभ्य आस्रवेभ्यो निवर्तते । तेभ्योऽ. निवर्तमानस्य परमाथिकतभेवज्ञानासिद्धः। ततः क्रोधाद्यास्रवनिवृत्त्यविनाभाविनो ज्ञानमात्रादेवाज्ञानजस्य पौगलिकस्य कर्मणो बंधनिरोधः सिद्धयतु।" [ स. सा. गा. ७२ टीका ]
श्री पं० जयचन्द्रजी कृत अर्थ-इस तरह आत्मा और आस्रवों के तीन विशेषणों कर भेद देखने से जिससमय भेद जान लिया उसी समय क्रोधादिक आस्रवों से निवृत्त हो जाता है और उनसे जब तक निवृत्त नहीं होता तब तक उस आत्मा के पारमार्थिक सच्ची भेदज्ञान की सिद्धि नहीं होती। इसलिये यह सिद्ध हुआ कि क्रोधादिक प्रास्रवों की निवृत्ति से अविनाभावी जो ज्ञान उसी से अज्ञानकर हआ पौद्गलिककर्म के बंध का निरोध होता है।
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