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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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तीर्थंकरादि प्रकृतियों के बंध के अभाव का प्रसंग आ जायगा, क्योंकि मात्र स्थूल या सूक्ष्म राग-द्वेषरूप अशुभभाव से मोक्ष की सहकारीकारणभूत उपादेयरूप तीर्थंकरप्रकृति का बंध नहीं हो सकता है।
रागो दोसो मोहो हस्सादी-णोकसायपरिणामो।
धूलो वा सुहुमो वा असुहमणो त्ति य जिणा वेति ॥ श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है कि रागरूप परिणाम, द्वेषरूप परिणाम, मोहरूप परिणाम तथा हास्यादिरूप परिणाम तीव्र हों या मंद हों ये सब अशुभभाव हैं ऐसा श्री जिनेन्द्र के द्वारा कहा गया है।
"तीर्थकरनामकर्म मोक्षहेतुश्चतुर्विधोऽपि बन्ध उपादेयः।" ( भावपाहुड गाथा ११३ टीका ) मोक्ष का हेतु होने से तीर्थंकर नामकर्म के चारों प्रकार का बंध उपादेय है।
षट्खंडागम जिसमें द्वादशांग के मूलसूत्रों का संकलन है उसमें "तिस्थयरं सम्मत्तपच्चयं' सूत्र द्वारा तीर्थंकरप्रकृति के बंध का कारण सम्यग्दर्शन को बतलाया है । द्वादशांग के इस मूत्र के अनुसार ही श्रीमदुमास्वामी आचार्य ने मो. शा. अ. ६ सू. २४ में तथा श्री अमृतचन्द्राचार्य ने तत्त्वार्थसार चतुर्थाधिकार श्लोक ४९ में दर्शनविशुद्धि अर्थात् सम्यग्दर्शन को तीर्थंकरप्रकृति के आस्रव का मुख्य कारण कहा है ।
तीर्थकरप्रकृति का बंध सम्यग्दर्शन के सद्भाव में ही होता है और सम्यग्दर्शन के अभाव में तीर्थकरप्रकृति का बंध नहीं होता है । इसलिये सम्यग्दर्शन को तीर्थंकरप्रकृति के बंध का कारण द्वादशांग में कहा गया है।
'यद्यस्य भावा भावानुविधानतो भवति तत्तस्येति वदन्ति तद्विद इति न्यायात् ।" ध. पु. १४ पृ. १३
जो जिसके सद्भाव और असद्भाव का अविनाभावी होता है, वह उसका है, ऐसा कार्य-कारणभाव के ज्ञाता कहते हैं, ऐसा न्याय है ।
"अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यो हि हेतुफलभावः सर्व एव ।" मूलाराधना पृ. २३ जगत में पदार्थ का संपूर्ण कार्य-कारणभाव अन्वयव्यतिरेक से जाना जाता है।
"अन्वय-व्यतिरेकसमधिगम्यो हि सर्वत्र कार्यकारणभावः।" प्रमेयरत्नमाला ३२५९
सर्वत्र कार्यकारणभाव अन्वय-व्यतिरेक से जाना जाता है ।
यद्यपि इसप्रकार तीर्थंकरप्रकृति के बंध का कारण सम्यग्दर्शन सिद्ध हो जाता है, तथापि मात्र सम्यग्दर्शन ही तीर्थंकरप्रकृति के बंध का कारण नहीं है, उसके साथ उसप्रकार का राग भी होना चाहिये, अन्यथा माठवें आदि गुणस्थानों में तीर्थंकर प्रकृति की बंध-व्युच्छित्ति हो जाने के पश्चात् भी सम्यग्दर्शन के सद्भाव में तीर्थकर प्रकृति का बंध होता रहना चाहिये था।
तीर्थकरप्रकृति के बंध का कारण न मात्र राग है और न मात्र सम्यग्दर्शन है, किन्तु सम्यग्दर्शन व राग दोनों हैं । जैसे पुत्रोत्पत्ति में माता और पिता दोनों कारण हैं ।
"यथा स्त्रीपुरुषाभ्यां समुत्पन्नः पुत्रो विवक्षावशेन देवदत्तायाः पुत्रोयं केचन वदंति, देवदत्तस्य पुत्रोयमिति केचन वदंति इति दोषो नास्ति । तथा जीवपुद्गलसंयोगेनोत्पन्नाः मिथ्यात्वरागादिभावप्रत्यया अशुद्ध निश्चयेनाशुद्धोपादानरूपेण चेतना जीवसंबद्धाः शुद्ध निश्चयेन शुद्धोपादानरूपेणाचेतनाः पौद्गलिकाः। परमार्यतः पुनरेकांतेन न
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