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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
जीवद्रव्य, ( जो अनादि - अनन्त है ) घट को नहीं करता और न पट को करता है तथा अन्य द्रव्यों को भी नहीं करता है । जीवद्रव्य की जो उपयोग योगरूप विनाशीकपर्याय है, वह घटादि ( पुद्गलद्रव्य की पर्यायों ) की उत्पादक अर्थात् उत्पन्न करने में निमित्त है ।
श्रात्मद्रव्य किसी से भी उत्पन्न नहीं हुआ है ( अनादि है ) इसलिये किसी का किया हुआ कार्य नहीं है । वह आत्मद्रव्य किसी अन्यद्रव्य को उत्पन्न नहीं करता ( अविनाशी है ), इसलिये वह आत्मद्रव्य किसी अन्यद्रव्य का कारण भी नहीं है ।
द्रव्य का उत्पाद व विनाश नहीं है सद्भाव ( नित्य ) है । उसद्रव्य की पर्यायें विनाश - उत्पाद करती हैं । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि निमित्तनैमित्तिकसम्बन्ध दो द्रव्यों की पर्यायों में है ।
- जै. ग. 24-8-72 / VII / र. ला. जैन; मेरठ
निमित्त के हट जाने पर नैमित्तिक क्रिया का अनियमतः होना शंका-क्या निमित्त के हट जाने पर भी नैमित्तिकवस्तु में क्रिया होती रहती है ?
समाधान - निमित्त के हट जाने पर नैमित्तिकक्रिया रहती भी है और नहीं भी रहती, एकान्त नियम नहीं है। डंडे के हट जाने पर भी चाक में क्रिया होती रहती है अर्थात् वह घूमता रहता है। घोड़े के हट जाने पर गाड़ी का चलना रुक जाता है ।
मुमुक्षु जीव को दृष्टि निमित्त व उपादान दोनों को सुधारने की होती है
शंका- मुमुक्षुजीव को उपादान को सुधारने की ओर दृष्टि रखनी चाहिये या निमित्त को सुधारने की ओर ? अपने को न सुधारकर निमित्त ही सुधारने से काम चल जायगा ? क्योंकि निमित्त ही के आधीन है ।
- जै. ग. 23-9-71 / VII / रो. ला. मिचल
समाधान - मुमुक्षुजीव को उपादान और निमित्त दोनों को सुधारने की ओर दृष्टि रखनी चाहिये । उत्तम उपज के लिये बीज व पृथ्वी आदि दोनों ही उत्तम होने चाहिये अन्यथा पैदावार उत्तम नही हो सकती । एक ही बीज होने पर भूमि की विपरीतता से निष्पत्ति की विपरीतता होती है । कारण के भेद से कार्य में भेद प्रवश्यम्भावी है (प्र. सा. गा. २५५ ) जबतक जीव निमित्तभूतद्रव्य का ( परद्रव्य का ) प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान नहीं करता तबतक नैमित्तिक भूतभावों का ( रागादिभावों का ) प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान नहीं करता ( समयसार गाथा २८३ २८५ टीका ) । ज. ध. पुस्तक १ पृष्ठ १०४ पर भी कहा है – 'साधुजन, जो त्याग करने के लिये शक्य होता है, उसके त्याग करने का प्रयत्न करते हैं और जो त्याग करने के लिये अशक्य होता है उसमें निर्मम होकर रहते हैं, इसलिये त्याग करने के लिये शक्य भी हिंसायत्न के परिहार करने पर अहिंसा कैसे हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती है ।' यदि निमित्त को सुधारने की आवश्यकता न होती तो सुसंगति व अभक्ष्य आदि के त्याग का उपदेश क्यों दिया जाता ? उपादान को न सुधारकर केवल निमित्त को सुधारने से काम नहीं चलेगा । उपादान को सुधारने के लिये ही तो निमित्त को सुधारा जाता है। यदि उपादान के सुधारने की ओर लक्ष्य नहीं तो केवलनिमित्त को सुधारने से क्या लाभ ? अर्थात् कुछ लाभ नहीं ।
- जै. सं. 25-9-58 / V / बंत्रीघर
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