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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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से उस जीव द्रव्य में नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवादिपर्यायों का अस्तित्व पाया जाता है। अर्थात् पर्यायाथिक नय की अपेक्षा नरकादिपर्यायों की अस्ति है, द्रव्याथिकनय की अपेक्षा नरकादिपर्यायों की नास्ति है।
प्र. सा. गाथा ११४
पंचास्तिकाय में भी कहा है
सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरूपा अणंतपज्जाया। भंगुप्पावधुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि एक्का ॥८॥
अर्थ-सत्ता उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है, एक है, सर्वपदार्थस्थित है, सविश्वरूप है, अनन्तपर्यायमय है और सप्रतिपक्ष है।
टीका—"द्विविधा हि सत्तामहासत्तावान्तरसत्ता च । तत्र सर्वपदार्थसार्थव्यापिनी सादृश्यास्तित्व सूचिका महासत्ता । अन्या तु प्रतिनियतवस्तुतिनी स्वरूपास्तित्वसूचिकाऽवान्तरसत्ता । तत्र महासत्ताऽवान्तरसत्तारूपेणाऽसत्ताऽवान्तरसत्ता च महासत्तारूपेणाऽसत्तेत्यसत्ता सत्ताया।"
अर्थ—सत्ता दो प्रकार है--महासत्ता और अवान्तरसत्ता। उनमें सर्वपदार्थसमूह में व्याप्त होनेवाली स्वरूपअस्तित्व को सूचित करनेवाली महासत्ता ( सामान्यसत्ता ) है । दूसरी प्रतिनियत वस्तु में रहनेवाली स्वरूपअस्तित्व को सूचित करनेवाली अवान्तरसत्ता (विशेषसत्ता) है। वहाँ महासत्ता अवान्तरसत्तारूप से (अवान्तरसत्ता की अपेक्षा ) असत्ता है। अवान्तरसत्ता महासत्तारूप से ( महासत्ता की अपेक्षा ) असत्ता है। इसलिये सत्ता ( अस्ति ) का प्रतिपक्षी असत्ता ( नास्ति ) है।
इस सम्बन्ध में अन्य भी उदाहरण दिये जा सकते हैं जब वस्त्र में तन्तु अनपेक्षित रहते हैं तब केवल एकवस्त्ररूप अस्तित्व प्रतीत होता है और जब वस्त्र की अपेक्षा न रहकर तन्तुओं की प्रधानता हो जाती है तब वस्त्र की प्रतीति न होकर केवल तन्तुओं की ही प्रतीति होती है अर्थात् तन्तुओं की अपेक्षा वस्त्र की नास्ति है। श्री अकलंकदेव 'स्वरूपसम्बोधन' में इसप्रकार कहते हैं
प्रमेयत्वादिभिर्धमर चिदात्मा चिदात्मकः ।
ज्ञानदर्शनतस्तस्माच् चेतनाचेतनात्मकः ॥ ३ ॥ अर्थ—प्रमेयत्वादि धर्मों की अपेक्षा अचेतनरूप है और ज्ञानदर्शन की अपेक्षा चेतनरूप भी है। अतः आत्मा चेतन-अचेतनरूप है।
ज्ञानाभिन्नं न च भिन्नो, भिन्नाभिन्नः कथञ्चन ॥ ४ ॥
अर्थ-आत्मा ज्ञान से भिन्न है, अर्थात् संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजन की अपेक्षा ज्ञान से प्रात्मा भिन्न है। आत्मा ज्ञान से भिन्न नहीं है, अर्थात् प्रात्मा और ज्ञान के प्रदेश भिन्न नहीं हैं, इसलिये ज्ञान से आत्मा अभिन्न है। इसप्रकार ज्ञान से प्रात्मा कथंचित अभिन्न है।
स्ववेहन मित्तश्चार्य, ज्ञानमात्रोऽपि नैवसः। ततः सर्वगतश्चायं, विश्वव्यापी न सर्वथा ॥५॥
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