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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १२७१ समाधान-पुद्गल के ६ भेद हैं-'स्थूलस्थूल, स्थूल, स्थूलसूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्मसूक्ष्म । इन छह भेदों में से सूक्ष्मभेदरूप कार्माणवर्गगायें हैं । वे कार्माणवर्गणाएँ ही जीव के साथ कर्मरूप से बँधती हैं। कर्म किसी भी इन्द्रिय के द्वारा गम्य नहीं है। जैसा कि गो. सा. जी. गा. ६०२ व ६०३ से सिद्ध है। पंचास्तिकाय गाथा ७६ की टीका में तो श्री अमृतचन्द्र स्वामी ने स्पष्ट कहा है कि 'कर्मवर्गणा सुक्ष्म है जो इन्द्रियगम्य नाहीं है। आत्मा अमूर्तिक है, क्योंकि आत्मा में मूर्तत्व के हेतुभूत स्पर्श, रस, गंध, वर्ण नहीं पाये जाते। यह कथन निश्चयनय की अपेक्षा से है, क्योंकि निश्चयनय की दृष्टि में प्रात्मा प्रबन्ध है । मोक्षमार्ग में उक्त कथन निश्चयनय की अपेक्षा से तो है नहीं, क्योंकि उक्त कथन में प्रात्मा और पदगलमयी द्रव्य क करके यह कहा गया है कि मूर्तिक अमूर्तिक का बन्ध होता है। श्री वीरसेनस्वामी ने मूर्त और अमूर्त के बन्ध का निषेध किया है, जैसा कि ध. पु. ६ पृ. ५२ पर कहा-'शरीररहित होने से अमूर्त आत्मा के कर्मों का होना भी सम्भव नहीं है क्योंकि मूर्तपुद्गल और अमूर्त आत्मा के सम्बन्ध होने का अभाव है।' ___ 'कर्म मूर्त हैं और जीव अमूर्त है, इन दोनों का सम्बन्ध कैसे हो सकता है ?' यह प्रश्न प्राचार्यों के सामने भी रहा है। श्री वीरसेनस्वामी ने तो इस प्रश्न का यह उत्तर दिया है कि "जीव अनादिकाल से कर्मबन्धन से बंधा हुआ है इसलिये कथंचित् मूर्तपने को प्राप्त हुए जीव के साथ मूर्तकर्मों का सम्बन्ध बन जाता है।" ( ज.ध. पु. १ पृ. २८८ )। अनादिकालीन बन्धन से बद्ध रहने के कारण जीव के संसारावस्था में अमूर्तत्व का अभाव है। (ध. पु. १५ पृ. ३२)। मूर्त आठ कर्मजनित अनादिशरीर से संबद्ध जीव संसारावस्था में सदाकाल इससे अपृथक् रहता है । अतएव उसके सम्बन्ध से मूर्तभाव को प्राप्त हुए जीव का शरीर के साथ सम्बन्ध होने में कोई विरोध नहीं है ( ध. पु. १६ पृ. ५१२ )।" श्री जयसेनाचार्य ने भी इसीप्रकार कहा है-'यद्यपि यह प्रात्मा निश्चयनय से अमूर्त है तथापि अनादि कर्मबन्ध के वश से व्यवहारनय से मूर्त होता हुअा द्रव्यबन्ध के निमित्तभूत रागादिविकल्परूप भावबंधोपयोग को करता है। इससे मूर्त द्रव्यकर्मों के साथ संश्लेषसंबंध होता है (प्र. सा. गा. १७४ को टीका) निश्चयनय से जीव यद्यपि अमूर्त है तथापि व्यवहारनय से मूर्तपने को प्राप्त जीव के बंध सम्भव है ( पं. का. गाथा १३४ की टीका )।" श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने इस सम्बन्ध में इसप्रकार कहा है। "मूर्त, मूर्त को स्पर्श करता है, मूर्त, मूर्त के साथ बन्ध को प्राप्त होता है; मूर्तत्वरहित जीव मूर्तकर्मों को अवगाह देता है और मर्तकर्म जीव को अवगाह देते हैं ( पं. का. गाथा १३४ ) जैसे रूपादिरहित जीव रूपीद्रव्यों को तथा गुणों को देखता जानता है उसीप्रकार उसके साथ बंध जानो (प्र. सा. गाथा १७४ )।" जीव और कर्मों का अनादिसंबंध स्वीकार किया है, यदि सादि सम्बन्ध स्वीकार किया होता तो यह दोष पा सकता था कि अमूर्त जीव के साथ मूर्तकर्म का बंध कैसे हो सकता है ? ( ज. ध. पु. १ पृ. ५९)। 'कर्म बंध अवस्था में जीव मूर्तिक है' इस सम्बन्ध में एक प्राचीन गाथा है जिसको सर्वार्थसिद्धि, पंचास्तिकाय, द्रव्यसंग्रह प्रादि ग्रन्थों की टीका में उद्धृत किया गया है। वह गाथा इसप्रकार है "बंधं पडि एयत्तं लक्खणदो, हवइ तस्स णाणत्तं । तम्हा अमुत्ति भावीऽणे यंतो होइ जीवस्स ॥" १. सूक्ष्मत्वेऽपि हि करणानुपलभ्याः कर्मवर्गणादयः सूक्ष्माः । १. वृहद व्यसंग्रह गाथा ७। 3. समयसार गाथा १४१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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