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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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वस्तु का लक्षण 'सत्' है और 'सत्' उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक होता है ( त. सू. अ. ५ सूत्र २९-३०)। इसमें से ध्रौव्य का ( जो द्रव्याथिकनय का विषय है ) वस्तु के साथ त्रैकालिक तादात्म्यसंबंध है, क्योंकि यह वस्त की सर्वअवस्थाओं में तादात्म्य रूप से व्याप्त होकर रहता है। पर्यायाथिकनय का विषय, उत्पादव्ययात्मक पर्यायका वस्तु के साथ कथंचित् तादात्म्यसंबंध है, क्योंकि वह वस्तु की मात्र एक अवस्था में तादात्म्यरूप से व्याप्त होकर रहती है सर्वअवस्था में व्याप्त होकर नहीं रहती। द्रव्यार्थिक अथवा निश्चयनय का विषयभूत 'ध्रौव्य' अर्थात् 'सामान्य' का वस्तु के साथ त्रैकालिक तादात्म्यसम्बन्ध होने से वह त्रैकालिक सत्यार्थ है अर्थात् कालिक रहनेवाला है । पर्यायाथिक अथवा व्यवहारनय का विषयभूत 'पर्याय' अर्थात् 'विशेष' का वस्तु के साथ कथंचित् तादात्म सम्बन्ध होने से असत्यार्थ, ( कथंचित् सत्यार्थ है ) अर्थात् हमेशा रहने वाला नहीं है । यहाँ पर 'असत्यार्थ' में 'अ' का निषेधात्मक अर्थ नहीं ग्रहण करना चाहिये किन्तु 'ईषत्' अर्थ में ग्रहण करना चाहिये (रा. वा. अ. ८ सू. ९ वा.३)। इस दृष्टि से समयसार गाथा ११ में व्यवहारनय को अभूतार्थ और निश्चयनय को भूतार्थ कहा है। स. सा. गाथा ६१ की टीका तथा प्र. सा. गाथा ८ के स्वाध्याय से समझ में आजाता है। अतः इस विषय को समझने के लिये उक्त गाथाओं का अध्ययन अवश्य करना चाहिये ।
वस्तु का स्वरूप क्या है ? 'अनेकान्त' इसका यह एक सत्य उत्तर है। अन्वयधर्म और व्यतिरेकधर्म के तादात्म्यरूप होने से 'अनेकान्त' जात्यन्तररूप है ( ज.ध. पु० १ पृ० २५६ ) । जीव अनेकान्तात्मक है, जात्यान्तरभाव को प्राप्त है ( ज० ध० पु० १ पृ० ५५)।
शंकाकार ने 'दो और दो चार' का दृष्टान्त देकर एकान्त को सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, किन्तु यह दृष्टान्त भी एकान्त को सिद्ध करने में असमर्थ है। दो और दो जोड़ने की अपेक्षा अथवा गुणा की अपेक्षा चार होते हैं, किन्तु सर्वथा 'दो और दो' 'चार' नहीं होते, क्योंकि घटाने की अपेक्षा 'दो' और 'दो' शून्य होता है अथवा 'दो' और 'दो' परस्पर मिलने की अपेक्षा ( २२ ) बाईस हो जाते हैं, भाग की अपेक्षा 'दो' और 'दो' एक हो जाता है । अतः 'दो' और 'दो' को सर्वथा चार कहना बड़ी भारी भूल है।।
है' यह सत्य है. 'वस्त अनित्य है' यह असत्य है, इसप्रकार की कल्पनामात्र एकान्तमिथ्यादृष्टियों के हृदय में उत्पन्न हया करती है । अनेकान्तवादी अर्थात् सम्यग्दृष्टि तो वस्तु को नित्यानित्यात्मक जा न्तरस्वरूप मानता है। अनेकान्त जैनधर्म का मूल सिद्धान्त है । अतः नियति ( क्रमबद्धपर्याय ) अनियति आदि किसी एक विषय में भी एकान्त का आग्रह नहीं करना चाहिए।
-जें. ग. 27-12-62/IX/ हीरालाल तर्क से प्रसिद्ध बात भी प्रमाण हो सकती है शंका-जो बात तर्क से सिद्ध न हो उसे क्यों माना जावे ?
समाधान-जो बात प्रमाण सिद्ध है उसको मानना चाहिये । वह प्रमाण प्रत्यक्ष और परोक्ष दो प्रकार का है।' परोक्षप्रमाण भी स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम के भेद से पाँच प्रकार का है । जिसप्रकार तर्क व अनुमान प्रमाण हैं उसीप्रकार प्रत्यक्ष, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और पागम भी प्रमाण हैं। जैसे कोई भोग से
१. "वधा ।। १ ॥ प्रत्यक्षतर भेदात् ॥ 2 ॥" ( परीक्षामुख अध्याय १)। 2. प्रत्यक्षादिनिमित्तं स्मृतिप्रत्यभित्रानतर्कानुमानागमभेदम् ! [ 312 40 मु0]
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