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[५० रतनचन्द जैन मुख्तार।
प्रशब्द है, चेतनागुणयुक्त है' उससे विरोध हो जायगा । तथा एकपदार्थ में विरुद्ध ऐसे नील व पीत परिणाम नहीं रह सकते हैं । एकसमय में दो प्राकारों के अनुभव का प्रसंग आवेगा अर्थात एक बाह्यपदार्थ (ज्ञेय ) का आकार और दूसरा ज्ञानाकार ऐसे दो आकारों के संवेदन का प्रसंग आवेगा।
चित्रपट पर जो चित्र है वह चित्रपट की वर्तमानपर्याय है उसको देखकर परोक्षरूपसदशप्रत्यभिज्ञान के द्वारा उस जैसे प्राकारवाली अन्यपर्याय का ज्ञान हो जाता है । केवलज्ञान सदृशप्रत्यभिज्ञानरूप नहीं है । प्रत्यभिज्ञान इन्द्रियजनित क्षायोपशमिकज्ञान है और केवलज्ञान प्रतीन्द्रिय क्षायिकज्ञान है। दोनों ज्ञानों में महान अन्तर है । केवलज्ञान असद् मूतरूप भूत और भाविपर्यायों को जानता है, मात्र इतना समझाने के लिये चित्रपट का इष्टान्त दिया गया है।
तीसरा दृष्टान्त पालेख्याकार का है । वर्तमानरूप प्रालेख्याकार वर्तमान है, किन्तु नष्ट और अनुत्पन्न पालेख्याकार तो वर्तमान नहीं है। वर्तमान आलेख्याकार को देखकर सदृशता के कारण उस प्राकारवाली अन्य पर्यायों के मात्र आकार का प्रत्यभिज्ञान हो सकता है। प्रत्यभिज्ञान केवलज्ञानरूप नहीं है। देखकर भूतशक्तिरूप से भूतपर्याय का और भविष्यत् शक्ति रूप से भाविपर्याय का ज्ञान हो सकता है, क्योंकि वर्तमानपर्याय में उसप्रकार की शक्तियां पड़ी हुई हैं।
प्रवचनसार गाथा ३८ इसप्रकार है
जे रणेव हि संजादा जे खल णट्रा भवीय पज्जाया। ते होंति असम्भूदा पज्जाया जाण पच्चक्खा ॥ ३८॥
अर्थ-जो पर्यायें वास्तव में उत्पन्न नहीं हुई हैं तथा जो पर्यायें वास्तव में उत्पन्न होकर नष्ट हो गई हैं वे असद्भूत पर्यायें हैं। वे पर्याय ज्ञान में प्रत्यक्ष होती हैं अर्थात् ज्ञान उनको प्रत्यक्षरूप से जानता है ।
प्रत्यक्ष जानता है अर्थात् इन्द्रियमादि की सहायता के बिना जानता है ।
संस्कृत टीका में जो 'सद्भूता एव भवन्ति' वाक्य है उसका अर्थ होता है कि वे व्यक्तरूप से असदुद्भुतपर्याय शक्तिरूप से सद्भुत ही हैं। यदि शक्तिरूप से भी सद्भूत न हों तो अनुकूल सामग्री मिलने पर भी उनकी व्यक्तता नहीं हो सकती है जैसे रेत में घटपर्यायरूप परिणमन करने की शक्ति नहीं है, कुम्भकार आदि अनुकूल सामग्री मिल जाने पर भी रेत में घटपर्याय व्यक्त नहीं हो सकती है। यदि मृतिकापिण्ड में भाविघटपर्याय का व्यक्तरूप से सद्भाव मान लिया जाय तो कुम्भकार को घटानुकूल व्यापार करने की कोई प्रावश्यकता न रहेगी। तथा एक ही समय में पिण्डरूप और घटरूप दो द्रव्य पर्यायों के सद्भाव का प्रसंग आ जायगा और 'क्रमवर्तिनः पर्यायाः' इस आर्ष वाक्य से विरोध आ जायगा।
प्रवचनसार गाथा ३९ इस प्रकार है
जवि पच्चक्खमजायं पज्जायं पल इयं च गाणस्स ।
ण हवदि वा तं गाणं दिव्वं ति हि के पविति ॥ ३९ ॥ अर्थ-जो अनुत्पन्नपर्यायें अर्थात् भाविपर्याय तथा नष्टपर्यायें तथा भूतपर्यायें केवलज्ञान के प्रत्यक्ष न हों। अर्थात् केवलज्ञान उन पर्यायों को प्रत्यक्षरूप से न जाने तो वह ज्ञान दिव्य है ऐसा कौन कहेगा?
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